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१२० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ मंत्री को दिया। परन्तु बुद्धिमान मंत्री ने राजा से निवेदन किया कि "राजन्! यह ठीक है कि इन ९९ लोगों की एक-एक चोट से पत्थर नहीं टूटा, किन्तु अगर इन ९९ लोगों ने एक-एक चोट न की होती तो सौवीं चोट में पत्थर कभी नहीं टूट सकता था। अतः पत्थर को तोड़ने, उसमें दरार करने, उसकी पकड़ को ढीली करने में, इन . ९९ व्यक्तियों का भी हिस्सा है। अतः इन्हें भी कारागार के बजाय इनाम मिलना चाहएि।" मंत्री की बात राजा को जॅच गई। उसने १०० वें व्यक्ति को विशिष्ट इनाम और ९९ व्यक्तियों को भी साधारण इनाम देकर सन्तुष्ट किया। ___ इसी प्रकार कर्मबन्ध की गाढ़ अवस्था को शिथिल करने, उसकी कालावधि (स्थिति) को घटाने, सत्तावस्था में रहे हुए बद्ध कर्म की अशुभता को शुभता में परिणत करने, सजातीय उत्तरप्रकृति में रूपान्तर करने, उदात्तीकरण करने तथा उदय में आने के पश्चात् भोगने के बदले अनुदय अवस्था में ही तप, त्याग, परीषहजय, उपसर्ग-सहन, समता, क्षमा आदि के पुरुषार्थ द्वारा फलभोग करके क्षीण करने का पुरुषार्थ भी आंशिक रूप से कर्ममुक्ति की, कर्म परिवर्तन की दिशा में किया हुआ पुरुषार्थ है। वह भी निष्फल नहीं है। वस्तुतः वह भी कर्मबन्ध पर किया हुआ धीमा प्रहार है। परन्तु इतने से पुरुषार्थ से सन्तोष नहीं मान लेना चाहिए। ___ कर्मशास्त्र में कर्मबन्ध और उदय (कर्मफल भोग) की प्रक्रिया का विशद वर्णन है। किन्तु यदि कर्म की बन्ध और उदय, ये दो ही अवस्थाएँ होती तो कर्मों का बन्ध होता और उनका उसी रूप में फल भोगने के बाद वे कर्म निःसत्व होकर छूट जाते, आत्मा से पृथक् हो जाते, परिवर्तन की कोई गुंजाइश ही न रहती। परन्तु कर्मशास्त्र में एक ओर यह विधान है कि बंधे हुए कर्म फल दिये बिना कदापि नहीं छूटते, वहाँ दूसरी ओर कतिपय उपायों का भी विधान है, जिनको आजमाने से बद्धकर्मों में नाना प्रकार से परिवर्तन भी किया जा सकता है। कर्म की अवस्थाएँ इन दो के सिवाय
और भी हैं। उदीरणा, अपवर्तन (अपकर्षण), उद्वर्तन (उत्कर्षण) और संक्रमण ये चारों अवस्थाएँ उदयावलिका से बहिर्भूत कर्म-पुद्गलों के परिवर्तन में सक्षम हैं। बद्धकर्म जब तक सत्ता में पड़े हैं, अभी उदयावलिका में प्रविष्ट नहीं हुए हैं, तब तक उनमें परिवर्तन हो सकता है। आशय यह है कि अनुदित कर्म की अवस्था में परिवर्तन होता है, हो सकता है। पुरुषार्थ के सिद्धान्त का यही ध्रुव आधार है। यदि कर्मबन्ध की अवस्था को बदलने हेतु रूपान्तर, उदात्तीकरण, संक्रमण या क्षय, क्षयोपशम, उपशम करने का पुरुषार्थ कर्मविज्ञान द्वारा मान्य न होता तो फिर कर्मविज्ञान को आजीवक मत के नियतिवाद या निराशावाद का ही परिपोषक माना जाता।
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