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कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-२ ११९ गया है, या अभी अनुदयावस्था में है? इन तथ्यों को भलीभाँति जान लेना चाहिए। भगवान् महावीर ने सूत्रकृतांग सूत्र में इसी तथ्य की ओर इंगित करते हुए कहा है-सर्व प्रथम बन्धन को समझो, और समझ कर फिर उसे तोड़ो।
पुरुषार्थ कैसा और कितना हो? बन्धन को तोड़ने का पुरुषार्थ करते समय यह भी देखना आवश्यक है कि पुरुषार्थ किस दिशा में हो रहा है, यदि सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप सद्धर्म को पाने के बजाय साम्प्रदायिकता, पूर्वाग्रह, हठाग्रह, धर्मान्धता, अहंपोषण, ममत्व आदि की दिशा में पुरुषार्थ हो रहा है तो वह अधर्मयुक्त है। इसलिए सूत्रकृतांग सूत्र में निर्देश किया गया है कि जो व्यक्ति धर्म और अधर्म से सर्वथा अनजान हैं, और केवल कल्पित तर्कों के आधार पर अपने मन्तव्य या पूर्वाग्रह गृहीत मत का प्रतिपादन करते हैं, वे अपने दुःखरूप कर्मबन्धन को तोड़ नहीं सकते, जैसे कि पिंजरबद्ध पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ पाता। ___ कर्मबन्धन को तोड़ने के लिए पुरुषार्थ करने वाले व्यक्ति को यह भी जानना आवश्यक है कि बन्धमुक्ति के लिए वर्तमान में धर्मदिशा में किया जाने वाला पुरुषार्थ अतीत में किये गए कर्मबन्धन के पुरुषार्थ से प्रबल है या नहीं? यदि अतीत के पुरुषार्थ से वर्तमान का पुरुषार्थ प्रबल है तो वह अतीत के पुरुषार्थ को अन्यथा भी कर सकता है। अगर वर्तमान का पुरुषार्थ अतीत के पुरुषार्थ से दुर्बल है, उद्देश्य विरुद्ध है, अथवा मन्द है तो वह अतीत के पुरुषार्थ को अन्यथा नहीं कर सकता। फिर भी सम्यक् दिशा में किया हुआ वर्तमान का पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं होता। .. एक राजा ने एक बार रास्ते में पड़े हुए बहुत बड़े भारी भरकम पत्थर को तोड़ने के लिए यह घोषणा करवाई कि 'जो इस पत्थर को एक ही चोट में तोड़ देगा, उसे बहुत बड़ा इनाम और पद दिया जाएगा। परन्तु जो इस पत्थर को एक ही चोट में नहीं तोड़ पायेगा, उसे कारागार में बन्द किया जाएगा।' इस पर अनेक लोग अपनाअपना हथौड़ा लेकर आए; और ९९ लोगों ने बारी-बारी से एक-एक चोट की, फिर भी पत्थर नहीं टूटा। सौवें व्यक्ति ने ज्यों ही हथौड़े से चोट की, पहली ही चोट में पत्थर टूट गया। ९९ निराश व्यक्तियों को राजा ने कारागार में बन्द करने का आदेश
१. बुज्झिजत्ति तिउट्टिजा बंधणं परिजाणिया। -सूत्रकृतांग १/१/१/१ २. एवं तक्काइं साहिता धम्माधम्मे अकोविया। - दुक्खं ते नाइतुझंति सउणी पंजरं जहा॥"-सूत्रकृतांग १/१/२/२२ ३. जैनदर्शन : मनन और मीमांसा से भावांशग्रहण, पृ. ३२०
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