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________________ कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-१ १०३ रिजर्व कराई है। आज वह महाशय बाजार में घूम रहे हैं। किन्तु पास में रिजर्व टिकट मौजूद होने से अमुक दिन जाना निश्चित है। उसी तरह बद्ध कर्म की स्थिति दीर्घकालिक है। इस कारण आज उसकी कोई हलचल नहीं हो रही है। आज वे कर्म उदय में नहीं दिखाई दे रहे हैं। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि वे बद्धकर्म हैं ही नहीं। वे आत्मप्रदेशों के साथ सत्ता में निश्चेष्ट पड़े हैं। वे समय परिपक्व होने पर उदय में आते हैं। जैसे भगवान महावीर ने तीसरे मरीचि के भव में नीचगोत्रकर्म बांधा था। वह लगातार १४ भव तक तो उदय में रहा। उन्हें सात बार नीचगोत्र में पटका। याचककुल में याचक बनाया। उसके बाद भी वह नीचगोत्रकर्म सत्ता में छिपा बैठा रहा। और अन्तिम २७वें भव में पुनः उदय में आया। जैसे-पैसा खजाने में पड़ा रहता है, वैसे ही कर्म भी आत्मा के खजाने में पड़ा रहता है। इसी का नाम सत्ता है। सत्ता में रहे हुए कर्मों का परिवर्तन शक्य है कोई भी कर्म बंधता तो एक समय में है, किन्तु फल देता है, अनेक समयों में। वर्तमान में बंधे कर्म का कुछ भाग वर्तमान में फल देता है, और कुछ भव-भवान्तर में। तब तक वह कर्म सत्ता में पड़ा रहता है। आशय यह है कि एक समय में रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति के कारण जितनी कार्मणवर्गणाएँ कार्मण-शरीर के साथ बंध को • प्राप्त होती हैं, वे सबकी सब एक समय में फल नहीं देतीं। उन सारी कर्मवर्गणाओं का कुछ भाग मात्र ही उदय को प्राप्त होकर फल भुगताने के पश्चात् झड़ जाता है। शेष सारी कर्मवर्गणाएँ कार्मण-शरीर में स्थित रहती हैं। उदय में आकर अथवा फल देकर झड़ जाने के पश्चात् जितनी कुछ वर्गणाएं कार्मणशरीर में शेष रहती हैं। वे सब मिलाकर उस कर्म या कर्मप्रकृति की 'सत्ता' कहलाती हैं। जिस प्रकार तिजोरी में प्रतिदिन कछ न कुछ धन आता रहता है। साथ ही उसमें से प्रतिदिन कुछ न कुछ धन निकलता भी रहता है। फिर भी बहुत-सा धन उसमें शेष रहता है। उसी प्रकार सत्ता के विषय में भी समझना। जीव के प्रतिसमय उस-उस प्रकृति, स्थिति तथा अनुभाग वाले अनेकों प्रदेश कार्मणशरीर के साथ बंधते रहते हैं। उसमें से अनेकों प्रदेश प्रतिसमय उदय में आकर झड़ते रहते हैं और शेष बहुत-से प्रदेश उसमें स्थित रहते हैं। उसमें स्थित रहने वाले शेष प्रदेशों का नाम 'सत्ता' है। इस प्रकार प्रतिसमय . १. (क) कर्मरहस्य (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी) से भावग्रहण, पृ. १६७, १६८ (ख) कर्म की गति न्यारी (पं. अरुण विजयगणि) से भावग्रहण, पृ. १७६ ... (ग) पंचसंग्रह (प्राकृत) ३/३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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