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________________ १०४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ एकसमय-प्रबद्ध प्रमाण द्रव्य (कर्मपुद्गल) बंधता है और इतना ही उदय में आता है। इसलिए सत्ता में सदा समान द्रव्य पाया जाता है। सत्तारूप कर्म फलाभिमुख होने से पूर्व तक बदले जा सकते हैं सत्ता में जो बद्धकर्म अवस्थित रहते हैं, उनमें शक्ति तो है, परन्तु वह अभी तक क्रियमाण (सक्रिय) रूप या उदयरूप नहीं हुई और जहाँ तक वह सत्तारूप कर्म की शक्ति फलाभिमुख नहीं हुई हैं, वहाँ तक वह शक्ति सत्ता के रूप में पड़ी रहती हैं। कर्मबन्ध की इस अवस्था (सत्तावस्था) में उसकी शक्ति में रद्दोबदल किया जा सकता है। उसकी फलशक्ति के प्रमाण और प्रकार दोनों परिवर्तनीय होते हैं। सत्तारूप कर्म जब तक फलाभिमुख नहीं होते, वहाँ तक उनका स्वरूप कुम्भकार के चक्र (चाक) पर चढ़ाये हुए और कुछ आकार लेते हुए मिट्टी के पिण्ड जैसा होता है। जैसे-उसके आकार में परिवर्तन करने की स्वतंत्रता अभी तक कुम्भकार के हाथ में से चली गई नहीं होती, वैसे ही कर्म की अनुदय-स्थिति (सत्ता-अवस्था) में उसमें परिवर्तन या उसकी मात्रा में न्यूनाधिकता करने की स्वतंत्रता भी उस आत्मा ने खोई नहीं होती। किन्तु कुम्भकार द्वारा चाक पर चढ़ाए हुए मिट्टी के पिण्ड को आकृति देने तथा आँवे में पकाने के बाद फिर उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता, वैसे ही जीव (आत्मा) भी कर्म की उदयावस्था के समय के पश्चात् उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता। उस समय उसके हाथ से सारी बाजी चली जा चुकी होती है। जैसे-विद्यार्थी परीक्षक के हाथ में लिखी हुई उत्तरपुस्तिका सौंपने से पहले तक उसमें चाहे जो परिवर्तन कर सकने में स्वतंत्र है, किन्तु उत्तरपुस्तिका परीक्षक के हथ में सौंपने के पश्चात् उसमें कुछ भी परिवर्तन करने में बिलकुल असमर्थ रहता है। वैसे ही आत्मा भी कर्म के फलोदय के काल से पूर्व तक उसमें अपकर्षण, उत्कर्षण या संक्रमण करने में समर्थ होता है। परन्तु फलोदय के पश्चात् कुछ भी नहीं कर सकता। ___ कर्म की रेख पर मेख मारने का आत्मा का सामर्थ्य कर्म की सत्ता-अवस्था में ही होता है। सत्ता-अवस्था में व्यक्ति किसी कर्म की स्थिति या अनुभाग अल्प हो तो उसका उत्कर्षण (उद्वर्तना) करके उसमें वृद्धि कर सकता है, इसी प्रकार स्थिति और अनुभाग के बहुत्व को अपकर्षण (अपवर्तना) करके अल्पत्व में परिणत कर १. (क) कर्मसंस्कार (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. १६७, १६८ (ख) एक समय में बन्ध को प्राप्त हुए कर्मस्कन्ध में अनन्तों कार्मण वर्गणाएं होती हैं। - इन सबके समूह का नाम एक समय-प्रबद्ध है। ___ -जैनसिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्रवर्णी), पृ. ८५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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