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कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-१ ९९
गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवस्थान, उपशमश्रेणी, क्षपकश्रेणी तथा बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि की जो भी प्ररूपणा की गई है, वह द्रव्यकर्मों के आश्रयी की गई है। उनके निमित्त से होने वाले जीव के अध्यवसायों, परिणामों, काषायिक या राग-द्वेष-मोहादि वैभाविक भावों का परिज्ञान स्वयं कर लेना पड़ता है। अनेक स्थलों पर तो कर्मविज्ञानवेत्ता आचार्यों ने स्वयं ही स्पष्टीकरण किया है। जहाँ-जहाँ द्रव्यकर्म की दिशा में जिस समय जिस प्रकृति का बन्ध होने की प्ररूपणा की गई है, वहाँवहाँ जीव के भावकर्म की दिशा में यह बात अवश्यम्भावी है कि वह उसी प्रकार का विकल्प या कषायादि कर रहा है। अन्यथा, उस-उस प्रकृति का बन्ध होना सम्भव नहीं था। इसी प्रकार वहाँ जिस प्रकृति का उदय होना कहा गया है, वहाँ यह बात अवश्यम्भावी है कि उस समय जीव के भावों में उसी प्रकार का विकल्प, भाव या कषाय उदित हो गये हैं। अथवा तदनुसार उसके ज्ञान-दर्शनादि गुण आवृत हो गए हैं, चारित्रगुण कुण्ठित हो गए हैं, उसकी अनाकुलता, समता या शमता क्षुब्धं हो गई है। अन्यथा, कर्म का उदय निष्प्रयोजन हो जाएगा।
जिस प्रकार थर्मामीटर का पारा देखकर व्यक्ति के तापमान (ज्वरादि) की तरतमता का ज्ञान स्वतः हो जाता है, उसी प्रकार द्रव्यकर्म के बन्ध, उदय आदि पर से जीव के भावों का अनुमान स्वतः हो जाता है। इसलिए द्रव्यकर्मबन्ध आदि के कथन पर से जीवों के भावकर्मबन्ध आदि का (भावों का) अनुमान करना उचित है। द्रव्यकर्म तथा जीव के भाव, इन दोनों का साथ-साथ कथन करना बहुत ही जटिल हो जाता है। इसलिए कर्मशास्त्र की शैली में द्रव्यकर्म के बंध आदि से जीव के भावों का नापतौल करना आवश्यक है।
जीव के भावों (परिणामों) का निमित्त पाकर कर्म का बन्ध होता है। जीव के भाव दो प्रकार के हैं-योगरूप और उपयोगरूप। योग का अर्थ है-प्रदेशों का परिस्पन्दन और उपयोग का अर्थ है-रागादि भाव। योग द्रव्यात्मक है, और उपयोग भावात्मक है। इसी प्रकार कर्मबन्ध में भी दो विभाग हैं- प्रकृतियुक्त प्रदेश द्रव्यात्मक है, जबकि स्थितियुक्त अनुभाग भावात्मक है। इसीलिए योग से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध तथा उपयोग से स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध होता है। इसलिए प्रदेशपरिस्पन्दनात्मक योग केवल कर्म प्रदेशों के सम्मेल तथा वियोग में कारण हो सकता है, उसके अनुभागस्वरूप भावों में नहीं। इसी प्रकार उसका रागद्वेषात्मक उपयोग उन प्रदेशों में फलदान शक्ति उत्पन्न करने में हेतु हो सकता है, प्रदेशों के संचलनअचलन में नहीं।
१. कर्म सिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी) पृ. ८१ से ८३
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