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१०० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
यही कारण है कि कर्मसिद्धान्त में जहाँ जीवों के सात, आठ या छह आदि मल कर्म प्रकृतियों का बन्ध बताया है, वहाँ भी बन्ध आदि में विभिन्न तरतमताएँ एवं अवस्थाएँ होती हैं। जैसे-किसी जीव के वे मूल प्रकृतियाँ हीन अनुभाग तथा हीन स्थिति से युक्त बंधती हैं, और किसी के अधिक अनुभाग तथा अधिक स्थिति से युक्त बंधती है। किसी के एक-समय-प्रबद्ध अधिक प्रदेश बंधते हैं, किसी के कम। किन्तु कर्मसिद्धान्तानुसार हीन अनुभाग वाले अधिक प्रदेशों का उदय जीव को अल्पमात्रा में बाधा पहुंचाता है। जबकि अधिक अनुभाग वाले अल्पमात्र-प्रदेशों का भी उदय जीव को अधिक बाधाकारक होता है। जैसे-उबलता हुआ कटोरी भर जल, भी शरीर पर पड़ जाए तो फफोले पैदा कर देता है, जबकि एक बाल्टी भर कम गर्म जल से शरीर को कोई हानि नहीं पहुँचती; वैसे ही अधिक अनुभाग वाला कर्मबन्ध जीवन के लिए अधिक हानिकारक होता है, जबकि अधिकं प्रदेश वाला कम अनुभाग से युक्त कर्मबन्ध जीवन को इतनी हानि नहीं पहुंचा पाता। इसलिए कर्मसिद्धान्त में अनुभाग और स्थिति के ही बन्ध, उदय, अपवर्तना, उद्बर्तना आदि की प्रधानता है, प्रकृति तथा प्रदेश की नहीं।१ ।।
बन्ध के अन्तर्गत दो विकल्प हैं-कर्म प्रदेशों का आकर इकट्ठा होना और बंधना। इकट्ठा होने को आस्रव और उनके संश्लेषण सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं। आस्रव केवल प्रदेश-परिस्पन्दन रूप या गमनागमन रूप है, जबकि बन्ध स्निग्ध-रूक्ष (राग-द्वेष) भावरूप। इसलिए जीव का प्रदेश-परिस्पन्दन रूप योग आस्रव में कारण है, जबकि उसका रागादि भावात्मक उपयोग उन आगत प्रदेशों में यथायोग्य स्निग्धादि गुणों को प्रकट करके परस्पर बांधने में कारण है। .. निष्कर्ष यह है कि योगों की चंचलता के कारण प्रति समय अनन्त कार्मण वर्गणाएँ आस्रव द्वारा विस्रसोपचय से पृथक् होकर जीव प्रदेशों के साथ संयोग को प्राप्त होती रहती हैं, पर उसके साथ रागादि रूप या कषाय रूप उपयोग का निमित्त मिला हुआ न हो तो वे उसके साथ बन्ध को प्राप्त नहीं होती।
इसीलिए शास्त्र में बन्ध के दो प्रकार किये गए हैं-ऐर्यापथिक बन्ध, और साम्परायिक बन्ध। तत्वार्थ सूत्र में सकषाय को साम्परायिक आस्रव और अकषाय (कषाय रहित) को ऐर्यापथिक आस्रव कहा गया है। ऐपिथिक बन्ध तो नाममात्र का बन्ध है। एक समय मात्र की स्थिति को बन्ध संज्ञा प्राप्त नहीं होती; क्योंकि प्रथम समय में तो वह आया ही है, अगले समय टिके तो बन्ध कहलाये। आने का नहीं, टिकने का नाम बन्ध है। इसीलिए रागादि रूप उपयोग के अभाव के कारण वीतराग,
१. कर्म सिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. ८३
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