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________________ ९८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ बन्ध के भेद : द्रव्यबन्ध और भावबन्ध बन्ध के दो प्रकार पहले हम बता चुके हैं; वे हैं - द्रव्यबन्ध और भावबन्ध । कार्मण-वर्गणाओं का कार्मण वर्गणाओं (अर्थात् पुद्गल का पुद्गल के साथ) तथा कर्मपुद्गलों का जीव प्रदेशों के साथ जो बन्ध होता है, उसे द्रव्यंबन्ध कहते हैं। इसी प्रकार जीव भावों का भावों के साथ तथा उपयोग रूप शुभ-अशुभ भावों का वाह्य पदार्थों (द्रव्य) के साथ जो बन्ध होता है, वह भावबन्ध है । जैसे- किसी जीव के क्रोधादि भावों को देखकर भय आदि का होना भाव का भाव के साथ प्रथम भावबन्ध है, तथा बाह्य इष्ट-अनिष्टरूप या ग्राह्य- त्याज्य रूप इष्ट पदार्थों को देखकर उनके प्रति हर्ष - शोक का भाव होना द्वितीय भाव बन्ध है । अथवा पदार्थों के प्रति स्वामित्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व भाव होता है, वह भी भावबन्ध का ही स्वरूप है। आशय यह है कि पुत्र, मित्र, कलत्र, भ्राता, माता आदि सचेतन पदार्थों के साथ अथवा धन, धान्य, वस्त्र, मकान, वाहन आदि अचेतन पदार्थों के साथ चित्त की ग्रन्थि इतनी मजबूत होती है कि इन पदार्थों में हानि, वृद्धि, क्षति, अपहरण, रोग, स्वास्थ्य आदि के रूप में कुछ भी परिवर्तन होने पर चित्त में तदनुसार परिवर्तन होने लगता है। हानि में विषाद, वृद्धि में हर्ष, वियोग में शोक (चिन्ता), संयोग में प्रसन्नता, रोग में चिन्ता, स्वस्थता में हर्ष आदि विकल्प चित्त में उठते रहते हैं। किसी के द्वारा किसी अभीष्ट वस्तु का अपहरण, नाश या बिगाड़ करने पर चित्त भी उस वस्तु के पीछे-पीछे चलता है। यही संक्षेप में भाववन्ध है । कर्मशास्त्र में द्रव्यबन्ध की अपेक्षा कथन यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि कर्म सिद्धान्त द्रव्यबन्ध की मुख्यता से और अध्यात्मशास्त्र भावबन्ध की मुख्यता से कथन करता है। चूँकि द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनों का परस्पर इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि किसी भी एक के जान लेने पर दूसरे का ज्ञान स्वत: हो जाता है। भावबन्ध का कथन अतिजटिल एवं विस्तृत हो जाता है। फिर भावों का कथन स्व-संवेदनगम्य होने से छद्यस्थ के लिए सम्भव नहीं है, जबकि द्रव्यबन्ध में निमित्त की भाषा पराश्रित होने से सम्भव भी है और सर्वजन परिचित होने से सुगम भी । इसलिए आसानी से सबके समझने-समझाने के लिए द्रव्यबन्ध के माध्यम से कथन करने में सरलता होती है । कर्म सिद्धान्त की पद्धति : द्रव्यकर्म-आश्रयी प्ररूपणा कर्मसिद्धान्त की पद्धति यह है कि कर्म के सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावों को जानने के लिए उसके द्रव्यकर्म का आश्रय लेना अनिवार्य होता है । अतः आगे के प्रकरणों में १. कर्म सिद्धान्त ( ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. ८०, ८१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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