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८४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
प्रवाह अभव्य जीव की अपेक्षा से अनादि - अनन्त है, जबकि भव्य जीव की अपेक्षा से अनादि - सान्त है । "१
इन गाथाओं के अनुसार रागादि परिणामानुसार कर्मबन्ध तथा कर्मबन्ध के अनुसार फल और फलानुसार फिर रागादि परिणामवश कर्मबन्ध; यों एक बार बांधा हुआ कर्म पूरी स्थिति पाकर छूटता है, तब तक और नये-नये कर्म बंधते रहते हैं। इस प्रकार से कर्म का चक्र रेंट की घटिका की तरह अबाध गति से अनन्तकाल तक चलता रहेगा। जिस प्रकार समुद्र में से पानी भाप बनकर उड़ता है, बादल बनकर फिर बरसता है । फिर समुद्र में पानी आता है। इस तरह समुद्र का अस्तित्व. वैसा ही बना रहता है। वैसे ही सूक्ष्म कार्मण शरीर (कर्मपिण्ड) में नये कार्मण पुद्गल परमाणु आते रहते हैं। जिन पुराने कर्मपुद्गलों की अवधि समाप्त हो चुकी होती है, वे चले जाते हैं। यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है। कर्मपिण्डरूप सूक्ष्मकार्मण शरीर अनादिकाल से आत्मा के साथ लगा हुआ ही है। अतः संसारस्थ आत्मा सदैव कर्मयुक्त बना रहता है। निष्कर्ष यह है - संसारी जीव पूर्वकर्मोदय से नये कर्म बाँधता है, नये कर्म पुनः पुराने बनते हैं, उनका पुनः उदय होगा और फिर नये कर्म का बन्ध होगा। कर्म- संयोग (बन्ध) के कारण जीव का दुःखी होना, और दुःखी होकर फिर नये कर्म बांधना, यह चक्र अनन्तकाल तक चलता रहता है।
इसलिए कर्मविज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति अथवा जैनेतर दार्शनिकों में यह भ्रान्ति घर कर गई है कि जो कर्म एक बार बंध गया, वह उसी रूप में उदय में आता है, और उसका कर्मफल उसी रूप में भोगे बिना कोई छुटकारा नहीं है । तथा पूर्वोक्त कर्मचक्र के सतत प्रवाहशील होने से समस्त कर्मों से पिण्ड छुड़ाना नितान्त कठिनतम है।
प्रथम शंका का समाधान
पूर्वोक्त तथाकथित जैनों और जैनेतर दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत की हुई प्रथम शंका का समाधान यह है - यह सत्य है कि जैसा - जैसा कर्मबन्ध होता है, वैसा ही वह कर्म उदय में आता है और उसका फल कर्ता को भोगना पड़ता है । परन्तु यह भी सत्य है,
१. जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं, कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ १२८ ॥ गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इंदियाणि जायंते ।
तेहिंदु विसयगहणं, तत्तो रागो व दोसो वा ॥ १२९॥
जायदि जीवस्सेवं भावो संसार - चक्कवालम्मि ।
इदि जिणवरेहिं भणिदो, अणादि - णिधणो सणिधणो वा ॥ १३० ॥ - पंचास्तिकाय
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