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________________ कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-१ ८३ कर्मबन्ध की परिवर्तनीयता के सम्बन्ध में भ्रान्ति .. परन्तु अधिकांश जीवों की कर्मों के साथ बद्धता इतनी गाढ़ हो जाती है कि वे सोच ही नहीं पाते कि इस गाढ़ बन्धन से कैसे छूटा जाए? बल्कि अधिकांश मानव भी उस गाढ़ बन्धन को स्वाभाविक समझ कर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं और यह सोचते हैं कि अब इस बन्धन में कुछ भी परिवर्तन नहीं हो सकता। जैसा बांधा है, वैसा ही भोगना पड़ेगा। कर्मबन्ध न तो शिथिल हो सकता है और न गाढ़। एक बार जैसा भी, जो भी, जिस रूप में भी कर्म बांधा है, वैसा ही उस रूप में वह फलदान तक रहेगा, उसमें न तो कोई परिवर्तन हो सकता है, न उदात्तीकरण हो सकता है और न ही किसी सजातीय कर्मप्रकृतियों का संक्रमण हो सकता है। इस विषय में कतिपय जैन भी शास्त्रों के कथन को सही रूप में न समझकर कहते हैं,-'सूत्रकृतांग सूत्र' में कर्मबन्ध के सम्बन्ध में कहा गया है-"जिसने जैसा भी कुछ कर्म अतीत में किया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है।" अथवा-जैसा किया (बंधा) हुआ कर्म वैसा ही उसका फलभोग।१ दूसरी भ्रान्ति-अनादिकालीन कर्मचक्र परम्परा से छूटना भी कठिन - कर्मबन्ध के सम्बन्ध में दूसरी भ्रान्ति यह भी है कि अनादिकाल से जीव और कर्मबन्ध की अटूट श्रृंखला चली आ रही है। समय-समय में प्रत्येक संसारी जीव के ७ कर्म तो अवश्य ही बंधते रहते हैं। इसलिए कर्मबन्ध से मुक्त होना या सर्वथा रहित होना कैसे सम्भव है? नये कर्मों का जत्था भी बँधता जाता है, पुराने कर्म भी संचित पड़े रहते हैं। पंचास्तिकाय' में संसारस्थ जीव और कर्म के इस अनादि सम्बन्ध को बीव-पुद्गल कर्मचक्र के नाम से अभिहित करते हुए लिखा है-"जो जीव संसार में स्थित है; अर्थात्-जन्म-मरण के चक्र में पड़ा हुआ है, उसके राग और द्वेष रूप परिणाम होते हैं। परिणामों से नये कर्म बंधते हैं। कर्मों के कारण विविध योनियों मोर गतियों में जन्म लेना पड़ता है। अमुक गति में जन्म लेने से शरीर प्राप्त होता है, फिर शरीर से इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। इन्द्रियों से जीव विषय ग्रहण करता है। विषयों के ग्रहण करने से राग-द्वेषरूप परिणाम होते हैं। इस प्रकार संसाररूपी चक्र में जीव के भावों से कर्म और कर्म से भाव होते रहते हैं। इस प्रकार संसार में कर्मचक्र का (क) 'जहा कडं कम्म तहासि भारे।'-सूत्रकृतांग, १/५/१/२६ । (ख) जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए।-सूत्रकृतांग १/५/२/२३ Jain Education international For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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