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________________ कर्मबन्ध : क्यों, कब और कैसे ? ४३ तो सिद्ध परमात्मा के साथ भी कर्मों का संयोग माना जाएगा, परन्तु ऐसा कदापि सम्भव नहीं है। अतः एकान्त रूप से यह नहीं माना जाता कि आत्मा अमूर्तिक ही है। कर्मबन्धरूप पर्याय की अपेक्षा उससे युक्त होने के कारण आत्मा कथंचित् मूर्त है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथञ्चित् अमूर्त है । ' मूर्त और अमूर्त का सम्बन्ध किस माध्यम से ? जीव और कर्म दोनों के सम्बन्ध की स्वीकृति के पश्चात् विचारणीय यह है कि मूर्त और अमूर्त में सम्बन्ध किस माध्यम से स्थापित हुआ है ? इन दोनों का सम्बन्ध (बन्ध) स्थापित हुआ है - एक माध्यम के द्वारा। वह माध्यम है- जीव के स्वयं मूर्त होने का। आत्मा अमूर्त है, यह एक सिद्धान्त है, किन्तु संसारी जीव अमूर्त हो गया, यह यथार्थ नहीं है । संसारी जीव अमूर्त है, यह निश्चयनयगत सिद्धान्त है, और भविष्य की कल्पना है। जिस दिन जीव अपने शुद्ध स्वरूप में प्रतिष्ठित होगा, उस दिन वह (सिद्ध) अमूर्त हो जायेगा । निष्कर्ष यह है कि जो शरीरधारी है, वह अमूर्त नहीं है । मर जाने के बाद स्थूल शरीर को छोड़ देने पर भी संसारी जीव सूक्ष्म (कार्मण) शरीर के बन्धन से मुक्त नहीं हो पाता। जिस दिन वह तैजस - कार्मण (सूक्ष्म) शरीर से भी मुक्त हो जाएगा, उस दिन सर्वथा अमूर्त हो जाएगा। एक बार सर्वथा अमूर्त हो जाने के पश्चात् फिर कदापि मूर्त कर्म- पुद्गल के साथ उसका सम्बन्ध स्थापित नहीं होगा । आशय यह है - कर्म का जीव के साथ तभी तक सम्बन्ध रहता है, जब तक सूक्ष्म ( तैजस-कार्मण) शरीर मौजूद है। कार्मण शरीर के कारण ही जीव अमूर्त होते हुए भी स्वयं मूर्तिमान जैसा हो जाता है। अतः वर्तमान स्वरूप में जीव मूर्त है, इसलिए जीव और कर्मपुद्गल के बंध में कोई समस्या खड़ी नहीं होती । २ वैभाविक शक्ति से रूपी पदार्थों को जानने-देखने से आत्मा का मूर्त्त कर्मों के साथ बन्ध 'प्रवचनसार' में इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट किया गया है - "जिस प्रकार रूपादि रहित आत्मा रूपी द्रव्यों और उनके गुणों को जानता देखता है। इस अपेक्षा से आत्मा कर्म के साथ बंध को प्राप्त होता है। कदाचित् ऐसा न माना जाए तो यह प्रश्न १. (क) न चामूर्तेः कर्मणां बन्धो युज्यते ? तत्र, अनेकान्तात् । नायमेकान्त अमूर्तिरेवात्मेति । कर्मबन्ध-पर्यायापेक्षया तदादेशात् स्यान्मूर्तः, शुद्ध स्वरूपापेक्षया स्यादमूर्त्तः । - तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि २/७/१६१ (ख) जीव-पोग्गल-दव्वाणममुत्त-मुत्ताणं कधमेयत्तेण संबंधी ? ण एस दोसो । संसारावत्थाए मुत्तो जीवो कथं णिव्वुओ संतो अमुत्तत्तमल्लियइ ण एस दोसो । जीवस्स मुत्तत्त णिबंध कम्माभावे तज्जणिदमुत्तत्तस्स वि तत्थ अभावेण सिद्धाणममुत्तभाव-सिद्धिदो। -धवला १३/५/३/१२/११/९ २. जैनयोग पृ. ४३, ४४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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