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________________ ४४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) होता है कि अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक पदार्थों को क्यों जानता देखता है? निष्कर्ष यह है कि अमूर्तिक आत्मा अपने विशिष्ट स्वभाव के कारण जैसे मूर्तिक पदार्थों का ज्ञाताद्रष्टा है, उसी प्रकार वह अपनी वैभाविक शक्ति के परिणमन-विशेष से मूर्तिक को के साथ बन्ध को प्राप्त होता है। वस्तु स्वभाव तर्क के अगोचर है। उदाहरणार्थ-बालक द्वारा मिट्टी के बने बैल या असली बैल को जानने-देखने पर बैल के साथ सम्बन्ध न होने पर भी विषयरूप से रहने वाला बैल जिसका निमित्त है, ऐसे उपयोगारूढ़ वृषभाकार दर्शन-ज्ञान के साथ का सम्बन्ध बैल के साथ के सम्बन्धरूप व्यवहार का साधक है, इसी प्रकार आत्मा अरूपित्व के कारण स्पर्शशून्य है, तथापि एकावगाह रूप से रहने वाले कर्मपुद्गल जिनके निमित्त हैं, ऐसे उपयोगारूढ़ रागद्वेषादि भावों के साथ का सम्बन्ध कर्मपुद्गलों के साथ के बन्धरूप व्यवहार का साधक अवश्य हो जाता आत्मा अमूर्त होते हुए भी मूर्त क्यों ? : एक युक्तिसंगत समाधान आचार्य अकलंकदेव ने भी युक्तिपूर्वक इस तथ्य का समर्थन किया है-“अनादि कालीन कर्मबन्ध की परम्परा के अधीन आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकान्तदृष्टि से सोचो। बन्ध-पर्याय के प्रति एकत्व होने से आत्मा कथंचित् मूर्तिक है; किन्तु अपने ज्ञानादिरूप लक्षण का परित्याग न करने के कारण कथंचित अमर्तिक भी है। जैसे-मद, मोह तथा भ्रम को उत्पन्न करने वाली मदिरा को पीकर मनुष्य (चेतनायुक्त होते हुए भी) स्मृतिशून्य हो जाता है, उसी प्रकार कर्मेन्द्रियों से अभिभूत होने से (ज्ञानवान् मानव के भी) अपने ज्ञानादि स्वलक्षण आविर्भूत नहीं हो पाते। इस दृष्टि से आत्मा मूर्तिक भी है, ऐसा निश्चय किया जाता है।" "तत्त्वार्थसार" में भी कहा है"आत्मा अमूर्तिक है, फिर भी कर्मों के साथ उसका (प्रवाहरूप से) अनादिनित्य सम्बन्ध होने से दोनों के ऐक्यवश आत्मा को मूर्त निश्चित करते हैं।"२ १. (क) स्वादिएहिं रहितो, पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि । दव्याणि गुणा य जधा, तह बंधो तेण जाणीहि ॥ -प्रवचनसार २/८२ (ख) प्रवचनसार २/८२ पर अमृतचन्द्राचार्य की टीका | (ग) देखें-प्रवचनसार मू. १७४ तथा तत्त्व-प्रबोधिनी टीका -जै. सि. को. भा. ३, १७५ पृष्ठ २. (क) अनादि-कर्मबन्ध-सन्तान-परतंत्रस्यात्मनः अमूर्ति प्रत्यनेकान्तो बन्ध-पर्याय प्रत्येकत्वान्मूर्तम्, तथापि ज्ञानादि-स्वलक्षणाऽपरित्यागात् स्यादमूर्तिः। ...........मद-मोह-विभ्रमकारी सुरा पीत्वा नष्ट-स्मृतिर्जनः काष्ठवदपरिस्पन्द उपलभ्यते, तथा कर्मेन्द्रियाऽभिभवादात्मा नाविभूतस्वलक्षणो मूर्त इति निश्चीयते ।। -तत्त्वार्य राजवार्तिक पृ. ११ (ख) वण्ण-रस-पंच गंधा, दो फासा अट्ठ णिच्चया जीवे । णो संति अमुत्ति तदो, ववहारा मुत्ति बंधादो ॥ -द्रव्यसंग्रह ७ (ग) अनादि-नित्य-सम्बन्धात् सहकर्मभिरात्मनः।। अमूर्तस्यापि सत्यैक्ये, मूर्त्तत्त्वमवसीयते ॥ -तत्त्वार्थसार ५/१७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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