________________
४२
रागादि बन्ध हेतु परिणाम : जीव-कर्म-संयोग जनित हैं
इस सम्बन्ध में 'बृहद् द्रव्यसंग्रह' में एक प्रश्न उठाकर उसका जैन सिद्धान्त की अनेकान्त शैली से उत्तर दिया गया है। आगंम में बन्ध के कारण राग, द्वेष और मोह बताए गए हैं। प्रश्न यह है कि कर्मबन्ध के कारणरूप रागद्वेषादि परिणाम क्या कर्मजनित हैं, अथवा जीव से उत्पन्न हुए हैं ? संक्षेप में समाधान है -ये न तो अकेले कर्म से जनित हैं और न ही अकेले जीव से; स्त्री और पुरुष दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान, तथा चूना और हल्दी के संयोग से उत्पन्न हुए वर्ण विशेष ( एक अलग ही रंग) के समान कर्म-बन्ध - जनक राग-द्वेषादि परिणाम जीव और कर्म दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए हैं।
कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
नय की विवक्षा के अनुसार विवक्षित एकदेश शुद्ध विश्चयनय से रागद्वेषादि कर्मजनित कहलाते हैं, किन्तु अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से जीव-जनित कहलाते हैं। यह अशुद्ध निश्चयनय शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से व्यवहारनय ही है।
शुद्ध निश्चयनय से दोनों का संयोग ही नहीं बनता
पुनः प्रश्न होता है - साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से ये रागद्वेषादि किसके हैं ? इसका उत्तर है - स्त्री और पुरुष के संयोग के बिना पुत्र की अनुत्पत्ति के समान तथा चूना और हल्दी के संयोग के बिना रंग-विशेष की अनुत्पत्ति के समान साक्षात् शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से राग-द्वेषादि की उत्पत्ति ही नहीं होती; क्योंकि शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में जीव और (कर्म) पुद्गल दोनों ही अपने आप में शुद्ध हैं और इन दोनों के संयोग का अभाव है। ?
अमूर्त आत्मा का मूर्त्त कर्म के साथ बन्धन कैसे ?
प्रश्न होता है - जीव, चेतन और अमूर्त है, जबकि कर्मपुद्गल अचेतन और मूर्त है। इन दोनों द्रव्यों का एकमेक सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? इन दोनों में यदि कोई सम्बन्ध निश्चयदृष्टि से नहीं है, तब तो कर्मों का क्षय करने या कर्म-निरोध करने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए । परन्तु इन दोनों का परस्पर सम्बन्ध और उसके फलस्वरूप जीवों की नाना गति, योनि और जाति की विभिन्न अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। निश्चयदृष्टि से अमूर्त और मूर्त का संयोग सभी जीवों का मान लिया जाए
9.
अत्राह शिष्य :- रागद्वेषादयः किं कर्मजनिताः किं जीवजनिताः ?
तत्रोत्तरम् - स्त्री-पुरुष - संयोगोत्पत्र पुत्र इव सुधा- हरिद्रा - संयोगोत्पन्न-वर्ण-विशेष इवोभयसंयोगजनिता इति । पश्चान्नय-विवक्षा-वशेन विवक्षितैक शुद्ध निश्चयेन कर्मजनिता भण्यन्ते । तत्रैवाशुद्धनिश्चयेन जीवजनिता इति । स चाऽशुद्धनिश्चयः शुद्ध-निश्चयापेक्षया व्यवहार एव । अथमतम्-साक्षाच्छुद्धनिश्चयनयेन कस्येति पृच्छामोवयम् ।
तत्रोत्तरम् - साक्षाच्छुद्ध-निश्चनयेन स्त्री-पुरुष-संयोगरहित पुत्रस्येव सुधा- हरिद्र-संयोग-रहितरंग-विशेषस्येव तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति, कथमुत्तरं प्रयच्छाम इति। - बृहद् द्रव्यसंग्रह टीका गा. ४८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org