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________________ ३४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) को स्पष्ट करते हुए कहा गया है - "यह बन्ध आत्मा और कर्म की अनुकूलता होने पर ही होता है, प्रतिकूलों का बन्ध नहीं होता।" प्रवचनसार में कहा गया है - यथायोग्य स्निग्ध- रूक्षत्वरूप स्पर्श से पुद्गल - कर्मवर्गणाओं का पिण्डरूप बन्ध होता है तथा राग-द्वेष- मोह परिणामों से जीव का बन्ध होता है। जीव के परिणामों का निमित्त पाकर जीव- पुद्गल का बन्ध होना जीव-कर्म-बन्ध है। अतः जीव और कर्मपुद्गल के आश्लेष रूप बन्ध में दोनों अपने-अपने शुद्ध रूप को छोड़कर एक-दूसरे के अधीन हो जाते हैं, अपने कार्य में अन्य की सहायता की अपेक्षा रखते हैं। यही विकार भाव है। इस भाव में द्रव्य अपने शुद्ध भाव से च्युत होकर किसी विजातीय प्रकार का हो जात है । जैसे- दूध के मिठास से दही का खटास हो जाना । ' बन्ध का परिष्कृत लक्षण 'तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक' में इसी का परिष्कृत लक्षण देते हुए कहा गया है - "कर्म के योग्य, सूक्ष्म और एकक्षेत्रावगाही अनन्त कर्मपुद्गलं परमाणुओं का कषाय से भीगे हुए आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में उपश्लिष्ट हो जाना - एकमेकरूप से चिपक जाना, बन्ध है । बही बन्ध है, अन्य संयोगमात्र या स्वगुण - विशेष समवायरूप बंध नहीं है। यही तात्पर्यार्थ है।"२ तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि वृत्ति में बन्ध का लक्षण स्पष्ट करने हेतु मूलसूत्र के · साथ संगति बिठाते हुए कहा गया है- जीव कषाययुक्त होने के कारण कर्म के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करता है, वही बन्ध है। जिस प्रकार मनुष्य अपनी जठराग्नि के अनुरूप आहार का ग्रहण करता है, उसी प्रकार कषायों की तीव्र, तीव्रतर तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम अवस्था के अनुरूप कर्मों का स्थितिबन्ध, और अनुभागबन्ध होता है, इस विशेषता को द्योतित करने के लिए सूत्र में 'सकषायत्वात्' कहा है। आत्मा अमूर्त है, इसलिए बिना हाथ-पैर आदि के वह कर्मों को बैसे ग्रहण करता है, इसके समाधान के लिए यहाँ 'जीव' पद दिया है। जीव का अर्थ है- जो जीता है, प्राण धारण करता है, जिसके आयुष्य कर्म का सद्भाव है 'कर्मणोयोग्यान्' पद से तात्पर्य हैह-कषाययुक्त जीव कर्म को बांधने के योग्य होते हैं, वे कर्मयोग्य पुद्गलों को त्रिविध योग द्वारा ग्रहण करते हैं। वस्तुतः पूर्वबद्ध कर्म के कारण जीव कषाययुक्त होता है इससे जीव और कर्म का अनादि-सम्बन्ध भी सूचित होता है। इसी प्रकार अमूर्त जीव - पंचाध्यायी २/१०२ १. (क) सानुकूलतया बन्धो, न बन्धः प्रतिकूलयोः। (ख) कम्मेहिं पुग्गलाणं बंधो जीवस्स रागमादीहिं। अण्णोऽवगाहो पुग्गल - जीवप्पणी भणिदो || (ग) देखें - प्रवचनसार (अमृतचन्द्रसूरि टीका) में इस पर व्याख्या | २/८५ २. कर्मणो योग्यानां सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहिनामनन्तानामादानादात्मनः कषायार्द्रीकृतस्य प्रतिप्रदेश तदुपश्लेष बन्धः। स एव बंधो, नान्यः संयोगमात्र स्व-गुण- विशेष - समवायो वेति तात्पर्यार्थः। - तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक (वृ.) ८/ Jain Education International For Personal & Private Use Only - प्र. सा. २/८५ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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