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________________ कर्मबन्ध का विशद स्वरूप ३३ (आत्मा) और कर्म-पुद्गल भिन्न-भिन्न हैं। जीव चेतन है, कर्मपुद्गल अचेतन; जीव अमूर्त है, कर्म पुद्गल मूर्त्त है; किन्तु बन्ध की अपेक्षा से जीव (आत्मा) और कर्मपुद्गल अभिन्नवत् हैं- एकमेक हैं- दूध और पानी की तरह एकत्व को प्राप्त हैं। ' श्लेषरूप बन्ध में शुद्ध की अपेक्षा बद्ध के द्रव्यादि चतुष्टय में अन्तर इस विषय में और अधिक स्पष्टता करते हुए श्री जिनेन्द्र वर्णीजी लिखते हैंसंश्लेषरूप इस सम्बन्ध-विशेष में केवल क्षेत्रात्मक प्रदेशबन्ध ही नहीं होता, अपितु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चारों का ही बन्ध हो जाता है। पृथक्-पृथक् द्रव्य सदा एक होता है, किन्तु बद्ध-द्रव्य एकाधिक द्रव्यों का पिण्ड हो जाता है। शुद्ध द्रव्य स्व- देश-प्रमाण ही होता है; अर्थात् - पुद्गल द्रव्य एक प्रदेशी और जीव द्रव्य लोकाकाश-प्रमाण असंख्यात्-प्रदेशी । परन्तु बद्ध पुद्गल - स्कन्ध अनेक प्रदेशी और बद्ध जीवं शरीर-प्रमाण असंख्यात प्रदेशी हो जाता है। शुद्ध द्रव्य की शुद्ध पर्याय केवल एक समय- स्थायी होती है, परन्तु बद्ध जड़ द्रव्यों की तथा बद्ध चेतन द्रव्यों की अशुद्ध द्रव्य-पर्यायें अथवा भाव-पर्यायें नियमतः असंख्यात - समय - स्थायी या अधिक-काल-स्थायी होती हैं। शुद्ध द्रव्यों का भाव अपने- अपने शुद्ध गुणों रूप रहता है, परन्तु बद्ध द्रव्यों का भाव अनेक गुणों के मिश्रण से विकृत हो जाता है। शुद्ध अवस्था में जड़ (कर्मपुद्गल) या चेतन कोई भी पदार्थ इन्द्रिय- गोचर नहीं होता, जबकि बद्ध अवस्था में जड़-स्कन्ध तथा शरीरधारी जीव इन्द्रिय-ग्राह्य हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि द्रव्य के बद्ध-अवस्था में, स्व-चतुष्टय ही बदलकर विजातीय रूप धारण कर लेते हैं। यही श्लेषरूप बन्ध की विचित्रता है । २ सभी एक क्षेत्रावगाही वस्तुएँ बन्ध को प्राप्त नहीं होतीं यह ठीक है कि बन्ध को प्राप्त वस्तुएँ एकक्षेत्रावगाही हो जाती हैं, किन्तु सभी एक क्षेत्रावगाही वस्तुएँ बन्ध को प्राप्त हो जाएँ, यह आवश्यक नहीं है। जैसे कि एक प्रदेश पर स्थित अनन्त परमाणु परस्पर बन्ध को प्राप्त न होकर अलग-अलग रहते हैं। लोकाकाश के एक प्रदेश या क्षेत्र पर अनन्तानन्त परमाणुओं, अनन्त सूक्ष्म वर्गणाओं, अनन्त सूक्ष्म शरीरधारी जीवों तथा एक स्थूल शरीरधारी जीव, आदि इतनी बड़ी समष्टि का अवस्थांन पाया जाता है। ये सभी एक दूसरे में अवगाह पाकर निर्बाधरूप से अवस्थित रहते हैं। इन सब में एकक्षेत्रावगाह तो है, किन्तु संश्लेष सम्बन्ध नहीं है; क्योंकि सभी पदार्थों का परिणमन एक-दूसरे से निरपेक्ष स्वतंत्ररीत्या चलता रहता है। बन्ध में ऐसा नहीं होने पाता, क्योंकि बन्ध को प्राप्त सभी (कर्म) ३ परमाणुओं और जीव का परिणमन एक दूस की अपेक्षा रखकर होता है। पंचाध्यायी में इसी तथ्य १. बन्धस्तु कर्म- पुद्गलानां विशिष्ट शक्ति-परिणामेनाऽवस्थानम् । - पंचास्तिकाय (अमृत. वृ.) १४८ २. कर्मसिद्धान्त ( जिनेन्द्र वर्णीजी) से ३. वही, (जिनेन्द्र वर्णीजी) से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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