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________________ कर्मबन्ध का विशद स्वरूप ३५ मूर्त कर्म को कैसे बांधता है?, इस कुतर्क का भी निराकरण हो जाता है; क्योंकि पहले से कर्मयुक्त होने के कारण जीव वर्तमान में मूर्त है, अमूर्त नहीं। तथा सकषाय होने से वह (जीव) कर्म के योग्य पुदगलों को ग्रहण करता है। इससे कषाय-रहित वीतराग पुरुषों के नये कर्मों का तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध नहीं होता और सर्वकर्म रहित सिद्ध परमात्मा के तो कर्मों का बन्ध सर्वथा नहीं होता। पं. सुखलालजी द्वारा बन्ध के लक्षण का स्पष्टीकरण तत्त्वार्थसूत्र (विवेचन) में बन्ध के इसी लक्षण का स्पष्टीकरण करते हुए पं. सुखलालजी लिखते हैं-"पुद्गल की अनेक वर्गणाएँ (प्रकार) हैं। उनमें से जो वर्गणाएँ कर्मरूप परिणाम को प्राप्त करने की योग्यता रखती हैं, उन्हीं को ग्रहण करके जीव अपने आत्मप्रदेशों के साथ विशिष्ट रूप से जोड़ देता है। इसका आशय यह है कि आत्मा स्वभाव से अमूर्त होने पर भी अनादिकाल से कषाययुक्त या रागादियुक्त तथा कर्म से बद्ध होने से मूर्तवत् हो जाता है। वह मूर्त जीव ही मूर्त कर्मपुद्गलों का ग्रहण करता है और कषायवश उनसे बँध जाता है। उदाहरणार्थ-जैसे दीपक बत्ती द्वारा तेल को खींच (ग्रहण) करके अपनी उष्णता से उसे लौ में परिणत कर लेता है, वैसे ही आत्मारूपी दीपक भी कषायरूप बत्ती द्वारा कर्मयोग्य तेलरूप पुद्गलों को ग्रहण (खींच) कर उन्हें अपनी उष्णता से कर्मरूप में परिणत कर लेता है। आत्मप्रदेशों के साथ कर्मरूप परिणाम को प्राप्त पुद्गलों का यह श्लेष सम्बन्ध ही बन्ध कहलाता है।" अर्थात-"कर्म और आत्मा का परस्पर श्लेष होने से एक विजातीय-विलक्षण रूप में दोनों की अवस्था-विशेष को बन्ध कहा जाता है।"२ _ निष्कर्ष यह है कि जब आत्मा के प्रदेशों से पुद्गलद्रव्य के कर्मयोग्य परमाणु मिल जाते हैं, तब आत्मा का अपना स्वरूप और शक्ति विकत हो जाती है। वह अपनी शक्ति के अनुसार कार्य करने में स्वतंत्र नहीं रहती; यही उसका बन्ध है। ___ कर्मबन्ध : आत्मा के स्व-भाव और स्व-गुणों का अवरोधक • आध्यात्मिक दृष्टि से सोचा जाए तो बन्ध वही है, जो आत्मा को बंधन में डालता है, आत्मा की शक्तियों को कुण्ठित कर देता है, आत्मा के ज्ञान और दर्शन रूप स्वाभाविक गुणों को आवृत कर देता है। एक वाक्य में कहें तो आत्मा के अपने स्व-भाव को उपलब्ध होने देने में जो अवरोधक कारण है, वही बंध है। वृहद् द्रव्य संग्रह में बन्ध के इसी स्वरूप का समर्थन करते हुए कहा गया है-“बन्ध से अतीत शुद्ध आत्मोपलब्धिरूप भावना से च्युत होकर (अशुद्ध निश्चयनय से) जीव (आत्मा) • १. (क) सकषायत्वात् कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते, स बन्धः। -तत्त्वार्थ सूत्र ८/२ (ख) देखें, इसी सूत्र पर सर्वार्थसिद्धि में व्याख्या, जैन सिद्धान्त (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. ९६ २. तत्त्वार्थ सूत्रः विवेचन (पं. सुखलालजी) से पृ. १९४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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