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________________ स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ४९३ तीसरा भाग शेष रहने पर ३३ सागर की आयु बांधता है, तब उत्कृष्ट स्थितिबन्ध में उत्कृष्ट अबाधा होती है। ( २ ) यदि वह अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण आयु के शेष रहते ३३ सागर की स्थिति बांधता है तो उत्कृष्ट स्थिति में जघन्य अबाधा होती है। (३) जब कोई मनुष्य एक पूर्व कोटि का तीसरा भाग शेष रहते हुए परभव की जघन्य स्थिति बांधता है, जो अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण भी हो सकती है। तब जघन्य स्थिति में उत्कृष्ट अबाधा होती है। (४) यदि अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण स्थिति शेष रहने पर परभव की अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण स्थिति बांधता है, तो जघन्य स्थिति में जघन्य अबाधा होती है । इसीलिए कहा गया है कि आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति में भी जघन्य अबाधा हो सकती है और जघन्य स्थिति में भी उत्कृष्ट अबाधा हो सकती है । ' उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के स्वामी अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है? अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है। इसका रहस्य यह है कि अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य सम्यक्त्व ग्रहण करने से पूर्व मिथ्यात्व - गुणस्थान में नरकायु का बन्ध कर लेता है। और बाद में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ग्रहण करके तीर्थंकर नामकर्म- प्रकृति का बन्ध करता है। वह मनुष्य जब नरक में जाने का समय आता है, तब सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व को अंगीकार करता है। जिस समय वह सम्यक्त्व को त्यागकर मिथ्यात्व को अंगीकार करता है, उससे पहले समय में उस अविरत - सम्यग्दृष्टि मनुष्य के तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। इसका कारण यह है कि यद्यपि तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध चतुर्थ गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान तक होता है, किन्तु उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट संक्लेश से ही बंधती है, और वह उत्कृष्ट संक्लेश तीर्थंकर प्रकृति के बन्धकों में से अविरत - सम्यग्दृष्टि के ही उस अवस्था में होता है, जिसका वर्णन ऊपर किया है। अतः उसका ही ग्रहण किया है। तथा तिर्यञ्चगति में तो तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध ही नहीं होता। देवगति और नरकगति में उसका बन्ध तो होता है, किन्तु वहाँ तीर्थंकर प्रकृति का बन्धक चौथे गुणस्थान से च्युत होकर मिथ्यात्व के अभिमुख नहीं होता। और ऐसा हुए बिना तीर्थंकर - प्रकृति के उत्कृष्ट स्थिति-बन्ध का कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेश नहीं हो सकता । अतः मनुष्य का ग्रहण किया है। तथा तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करने से पहले जो मनुष्य नरकायु का बन्ध नहीं करता, वह तीर्थंकर-प्रकृति का बन्ध करने के बाद नरक में उत्पन्न नहीं होता। इसलिए ऐसे मनुष्य का ग्रहण किया है, जो तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करने से पूर्व नरकायु का बन्ध कर लेता है। तथा राजा श्रेणिक की तरह कोई-कोई क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व - दशा में ही १. कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ३९ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. ११७-११८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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