SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 540
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) जीव के उसकी उत्कृष्ट स्थिति पच्चीस सागर - प्रमाण बँधती है। एकेन्द्रिय जीव के जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, उससे पचास गुणा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध त्रीन्द्रिय जीव के होता है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीव के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध से सौ गुणा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चतुरिन्द्रिय जीव के होता है, तथा उसके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध से एक हजार गुणा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंज्ञिपंचेन्द्रिय जीव के होता है। ऐसा ही अन्य प्रकृतियों के विषय में समझ लेना चाहिए। गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड) में इसका निष्कर्ष इस प्रकार बताया गया है - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय ( तथा असंज्ञीपंचेन्द्रिय) जीवों के मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमशः एक सागर, पच्चीस सागर, पचास सागर, सौ सागर, और एक हजार सागर प्रमाण होता है। तथा उसका जघन्य स्थितिबन्ध एकेन्द्रिय के पल्य के असंख्यातवें भाग हीन एक सागर प्रमाण होता है और विकलेन्द्रिय जीवों के.. पल्य के संख्यातवें भाग हीन अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति -प्रमाण होता है। पंचसंग्रह के अनुसार “तीर्थंकर नाम सहित देवायु- नरकायु की जघन्य स्थिति १० हजार वर्ष प्रमाण है। तथा सातावेदनीय की १२ मुहूर्त और आहारक, अन्तराय, ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण की कुछ कम मुहूर्त्त प्रमाण जघन्य स्थिति है । २ जघन्य अबाधाकाल का प्रमाण समस्त प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्ध में तथा आयुकर्म के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध में भी जघन्य अबाधा का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । किन्हीं आचार्यों के मत से तीर्थंकर नाम की जघन्य स्थिति देवायु के समान अर्थात् - दस हजार वर्ष है और आहारद्विक की अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण है। जघन्य स्थितिबन्ध में जो अबाधाकाल होता है, उसे जघन्य अबाधा कहते हैं। जबकि उत्कृष्ट स्थितिबन्ध में जो अबाधाकाल होता है, उसे उत्कृष्ट अबाधा कहते हैं। किन्तु यह परिभाषा सात कर्मों ( आयुकर्म के सिवाय) तक ही सीमित है, जिनकी अबाधा स्थिति के प्रतिभाग के अनुसार होती है। आयुकर्म की तो उत्कृष्ट स्थिति में भी जघन्य अबाधा हो सकती है और जघन्य स्थिति में भी उत्कृष्ट अबाधा हो सकती है। अतः आयुकर्म की अबाधा में चार विकल्प होते हैं - ( १ ) उत्कृष्ट स्थितिबन्ध में उत्कृष्ट अबाधा, (२) उत्कृष्ट स्थितिबन्ध में जघन्य अबाधा, (३) जघन्य स्थितिबन्ध में उत्कृष्ट अबाधा और (४) जघन्य स्थितिबन्ध में जघन्य अबाधा । इन विकल्पों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है- ( १ ) जब कोई मनुष्य अपनी एक पूर्वकोटि की आयु में १. (क) कमसो पणवीसाए पन्नासय सहस्संगुणिओ ॥३७॥ (ख) विगलि असन्नि सु जिट्ठो कणिट्ठउ पल्लसंखभागूणो ॥३८॥ (ग) एयं पणकदी पण्णं सयं सहस्से च मिच्छवरबंधो । इग-विगलाण अवरं पल्लास॑खूण संखूण ॥१४४॥ (घ) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन, (पं. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. ११५ २. पंचसंग्रह गा. २५३, २५४ Jain Education International For Personal & Private Use Only - गोम्मटसार (कर्मकांड) www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy