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________________ स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ४८९ इन ८५ प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय जीव ही कर सकते हैं। इन जघन्य स्थितियों में पल्य का असंख्यातवाँ भाग बढ़ा देने पर एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा से इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का प्रमाण जानना चाहिए। यह विवेचन ‘पंचसंग्रह' के अनुसार किया गया है। वर्ग के अनुसार उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का नियम 'कर्मप्रकृति' ग्रन्थ के अनुसार इस गाथा की व्याख्या दूसरे प्रकार से की जाती है। उस-उस कर्मप्रकृति की उत्कृष्ट स्थितिसूचक अर्थ न लेकर अष्टविध कर्म के प्रत्येक वर्ग का उत्कृष्ट स्थितिसूचक अर्थ ग्रहण करना चाहिए। जैसे-मति-ज्ञानावरण आदि प्रकृतियों का समुदाय ज्ञानावरण वर्ग कहलाता है। इसी प्रकार चक्षुदर्शनावरण आदि प्रकृतियों का समुदाय दर्शनावरणवर्ग है। सातावेदनीय आदि प्रकृतियों का वर्ग वेदनीय वर्ग है। दर्शनमोहनीय की उत्तर प्रकृतियों का समुदाय दर्शनमोहनीयवर्ग है। कषाय-मोहनीय की प्रकृतियों का समुदाय कषाय-मोहनीय वर्ग है। नोकषाय-मोहनीय की प्रकृतियों का समुदाय नोकषाय-मोहनीय वर्ग है। नामकर्म की प्रकृतियों का समुदाय नामकर्म का वर्ग, गोत्रकर्म की प्रकृतियों का समुदाय गोत्रकर्म वर्ग और अन्तराय कर्म की प्रकृतियों का समुदाय अन्तरायकर्मवर्ग कहलाएगा। कर्मप्रकृति के अनुसार प्रत्येक वर्ग की जघन्य स्थिति ज्ञात करने का तरीका इस प्रकार प्रत्येक वर्ग की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसे वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं और उस स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति ७0 कोटि-कोटि सागरोपम का भाग देने पर जो लब्ध आता है, उसमें से पल्य का असंख्यातवाँ भाग कम कर देने पर उस वर्ग के अन्तर्गत आने वाली प्रकृतियों की जघन्य स्थिति ज्ञात हो जाती ऐसा करने का कारण ऐसा करने का कारण यह है कि एक ही वर्ग की विभिन्न प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में बहुत अन्तर देखा जाता है। जैसे कि वेदनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ३० कोटि-कोटि सागरोपम है, किन्तु उसके ही भेद सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति उससे आधी, अर्थात् १५ कोटि-कोटि सागरोपम की बताई है। ‘पंचसंग्रह' के विवेचनानुसार सातावेदनीय की जघन्य स्थिति मालूम करने के लिए उसकी उत्कृष्ट स्थिति १५ कोटि-कोटि सागरोपम में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देना चाहिये। जबकि १. (क) सेसाणुक्कोसाउ मिच्छत्तठिईए ज लद्धं । ___-कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ३६ विवेचन। (मरुधर केसरी) (ख) जा एगिदि जहन्ना पलियासंखंस संजुया सा उ । तेसिं जेट्ठा ॥२६१॥ -पंचसंग्रह ५/५४ (ग) कर्मप्रकृति के अनुसार व्याख्या, कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ. १४६-१४७ (घ) सजातीय प्रकृतियों के समुदाय को वर्ग कहते हैं।-सं. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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