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४९० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) 'कर्मप्रकृति' ग्रन्थ के अनुसार सातावेदनीय के वेदनीय नामक वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति ३० कोटि-कोटि सागरोपम में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर लब्ध में पल्योपम के असंख्यातवें भाग को कम करना चाहिए। कर्मप्रकृत्यनुसार उपर्युक्त वर्गों की जघन्य स्थिति
'कर्मप्रकृति' के अनुसार दर्शनावरण और वेदनीय वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति ३० कोटि-कोटि सागर में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोटि-कोटि सागर का भाग देने पर ३/७ लब्ध आता है। उसमें पल्य के असंख्यातवें भाग को कम कर देने पर निद्रापंचक और असातावेदनीय की जघन्य स्थिति ज्ञात होती है। दर्शनामोहनीय वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोटि-कोटि सागर में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर लब्ध एक सागर में से पल्य का असंख्यातवाँ भाग कम करने पर मिथ्यात्व (दर्शन) मोहनीय की जघन्य स्थिति आती है। कषायमोहनीय वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति ४0 कोटि-कोटि सागर में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर लब्ध ४/७ सागर में से पल्य का असंख्यातवाँ भाग कम कर देने पर प्रारम्भ की १२ कषायों की जघन्य स्थिति आती है। नोकषाय-मोहनीय वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति .२० कोटि-कोटि सागर में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर लब्ध २/७ सागर में से पल्य का असंख्यातवाँ भाग कम करने पर पुरुषवेद के सिवाय नोकषायों की जघन्य स्थिति आती है। नामवर्ग और गोत्रवर्ग की उत्कृष्ट स्थिति २0 कोटि-कोटिं सागर में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर लब्ध में से पल्य का असंख्यातवाँ: भाग कम कर देने पर वैक्रियषट्क, आहारकद्विक, तीर्थकरनाम, एवं यशःकीर्तिनाम को छोड़कर कर्म की शेष सत्तावन प्रकृतियों और नीच गोत्र की जघन्य स्थिति ज्ञात होती है। एकेन्द्रिय आदि के योग्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति बन्ध
पहले बताया जा चुका है कि अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर जो लब्ध निकला, वही एकेन्द्रिय जीवों के उन-उन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का परिमाण है, उस उत्कृष्ट स्थितिबन्ध में पल्य के असंख्यातवें भाग को कम कर देने पर एकेन्द्रिय जीव के जघन्य स्थितिबन्ध का प्रमाण आता है।
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. ३६ का विवेचन (मरुधरकेसरी) से, पृ. १४६, १४७ (ख) वग्गुक्कोस-ठिईणं मिच्छत्तुक्कोसगेण ज लद्ध। सेसाणं तु जहन्ना पल्लासंखिज्ज-भागूणा ॥
-कर्मप्रकृति गा. ७९ २. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन (गा. ३६) (मरुधरकेसरी) से पृ. १४८ (ख) जघन्य स्थितिबन्ध में विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखें, कर्मग्रन्थ भा. ५ का परिशिष्ट
(मरुधर केसरी)
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