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४८८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) २/७ लब्ध स्थिति आती है, उसे १ हजार से गुणा करने पर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के वैक्रियषट्क (वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी) की उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण आता है। उसमें से पल्य का असंख्यातवां भाग कम कर देने से जघन्य स्थिति का प्रमाण आता है। १२0 बंधयोग्य प्रकृतियों में ३५ की उत्कृष्ट जघन्य स्थिति
इसी प्रकार तीर्थंकर नाम, आहारकद्विक, ३५वीं गाथा में निर्दिष्ट (पूर्वोक्त) १८ । प्रकृतियों, तथा ३६वीं गाथा में निर्दिष्ट ४ प्रकृतियों (संज्वलनत्रिक और पुरुषवेद), एवं आयुकर्म की चार प्रकृतियों और वैक्रिय-षट्क की ६ प्रकृतियों, यो ३५ बंधयोग्य प्रकृतियों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का निरूपण हुआ।
. . शेष ८५ प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का नियम और प्रक्रिया . ___ बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से ३५ प्रकृतिणों (पूर्वोक्त) को छोड़कर शेष ८५ प्रकृतियों की जघन्य स्थिति को जानने के लिये कर्मग्रन्थकार ने एक नियम बताया है कि उन-उन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्णत्व-मोहनीय की 90 कोटि-कोटिं सागरोपम स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध होता है, उसे उसकी जघन्य स्थिति समझनी चाहिए। जघन्य स्थिति का यह नियम शेष ८५ प्रकृतियों पर लागू होता है। क्योंकि ३५ प्रकृतियों की जघन्य स्थिति पहले बता चुके हैं। उक्त अवशिष्ट ८५ प्रकृतियों की जघन्य स्थिति इस प्रकार है
' पूर्वोक्त नियम के अनुसार निद्रा-पंचक तथा असातावेदनीय की जघन्य स्थिति ३/७ सागर, मिथ्यात्व की एक सागर, अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि १२ कषायों की ४/७ सागर, स्त्रीवेद और मनुष्यद्विक की ३/१४ सागर, (क्योंकि उनकी उत्कृष्ट स्थिति १५ कोटि-कोटि सागर में ७० कोटि-कोटि सागर का भाग देने से लब्ध आता है १५/७0; फिर ऊपर-नीचे के अंकों को ५ से काटने पर ३/१४ शेष रहता है), सूक्ष्मत्रिक और विकलत्रिक ९/३५ सागर (क्योंकि उनकी उत्कृष्ट स्थिति १८ कोटि-कोटि सागर में ७० कोटि-कोटि सागर का भाग देने से लब्ध आता है-१८/७0, फिर ऊपर और नीचे के दोनों अंकों को दो से काटने पर ९/३५ शेष रहता है), स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, हास्य, रति, शुभविहायोगति, वज्रऋषभनाराच संहनन, समचतुरन संस्थान, सुगन्ध, शुक्ल वर्ण, मधुर रस, मृदु, लघु, स्निग्ध और उष्ण स्पर्श की १/७ सागर तथा शेष शुभ और अशुभ वर्णादिचतुष्क की २/७ सागर, दूसरे संस्थान और संहनन की ६/३५ सागर, तीसरे संस्थान और संहनन की ७/३५ सागर, चौथे संस्थान
और संहनन की ८/३५ सागर, पांचवें संस्थान और संहनन की ९/३५ सागर और शेष प्रकृतियों की २/७ सागर जघन्य स्थिति समझनी चाहिए। १. (क) वेउव्विछक्कि तं सहसतिडियं ज असनिणो तेसि । ___ पलियासंखमूणं ठिई अबाहूणिय-निसेगो ॥२५६॥
-पंचसंग्रह (ख) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन पृ. ११४
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