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________________ स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ४८३ . स्थिति के दो प्रकार : कर्मरूपताऽवस्थानलक्षणा, अनुभवयोग्या 'कर्मप्रकृति' में स्थिति के दो भेद बताये गए हैं-एक-कर्मरूपतावस्थान-लक्षणा स्थिति और दूसरी-अनुभवयोग्या स्थिति। बंधने के बाद कर्म जब तक आत्मा के साथ ठहरता है, उतने काल का परिमाण कर्मरूपतावस्थान-लक्षणा स्थिति है, और जो अबाधाकाल-रहित स्थिति है, वह अनुभवयोग्या स्थिति कहलाती है। स्थितिबन्ध के प्रकरण में पहली ही स्थिति बताई गई है। दूसरी स्थिति जानने के लिए पहली स्थिति में से अबाधाकाल कम कर देना चाहिए।' अबाधाकाल : विभिन्न कमों का ___ इसे एक उदाहरण में समझिए-पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, पाँच अन्तराय और असातावेदनीय कर्मों में प्रत्येक कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटिकोटि सागरोपम की है और एक कोटिकोटि सागरोपम की स्थिति में एक सौ वर्ष अबाधाकाल होता है। अतः उपर्युक्त कर्मों में से प्रत्येक का अबाधाकाल ३०४ १00 = ३000 वर्ष हुआ। इसी अनुपात के अनुसार सूक्ष्म त्रिक और विकलत्रिक (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) का अबाधाकाल १८00 वर्ष है। समचतुरन-संस्थान और वज्रऋषभनाराच संहनन का अबाधाकाल १000 वर्ष, न्यग्रोध-परिमण्डल संस्थान और ऋषभनाराच संहनन का अबाधाकाल १२०० वर्ष, स्वाति (सादी) संस्थान और नाराच संहनन का अबाधाकाल १४00 वर्ष, कुब्ज संस्थान और अर्धनाराच संहनन का अबाधाकाल १६00 वर्ष, वामन संस्थान और कीलक संहनन का अबाधाकाल १८०० वर्ष, तथा हुंडक संस्थान और सेवार्त संहनन का अबाधाकाल २०00 वर्ष, पूर्वोक्त सोलह कषायों का चार हजार वर्ष; मृदु, लघु, स्निग्ध, उष्ण, सुगन्ध, श्वेतवर्ण, और मधुर रस का अबाधाकाल १000 वर्ष, हरित वर्ण और आम्लरस का १२५० वर्ष, लाल वर्ण और काषाय रस का १५00 वर्ष, नील वर्ण और कटु रस का १७५0 वर्ष, काला वर्ण और तिक्त (तीखे) रस का २000 वर्ष का अबाधाकाल है। इसी प्रकार शुभ विहायोगति, उच्च गोत्र, सुरद्विक, स्थिरषट्क, पुरुषवेद, हास्य और रति का १000 वर्ष का, मिथ्यात्वमोहनीय का ७000 वर्ष का, मनुष्यद्विक, स्त्रीवेद और सातवेदनीय का १५00 वर्ष का, भय, जुगुप्सा, अरति, शोक, वैक्रियद्विक, तिर्यरिद्वक, नरकद्विक, औदारिकद्विक, नीचगोत्र, तैजस-पंचक, अस्थिरषट्क, त्रसचतुष्क, स्थावर, एकेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, नपुंसकवेद, अप्रशस्त (अशुभ) विहायोगति, उच्छ्वास-चतुष्क, गुरु, कर्कश, रूक्ष, शीत और दुर्गन्ध का अबाधाकाल दो हजार वर्ष का जानना चाहिए।२ १. (क) इह द्विधा स्थितिः, -कर्मरूपतावस्थान-लक्षणा, अनुभवयोग्या च । तत्र कर्मरूपतावस्थान लक्षणामेव स्थितिमधिकृत्य जघन्योत्कृष्ट-प्रमाणमवगन्तव्यम्। अनुभवयोग्या पुनरबाधाकालहीना। -कर्मप्रकृति, मलयगिरि टीका, पृ. १६३ २. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ३२ का विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. ९२ से ९४ तक (ख) वीस कोडाकोडी एवइयाऽऽबाहवाससया । -कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ३२ (ग) दस सेसाणं वीसा एवइयाबाह वाससाया । -पंचसंग्रह गा. २४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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