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________________ ४८२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) बद्ध-कृतकर्म (द्रव्य) उदय या उदीरणा को प्राप्त होकर फल न दे, तब तक का काल अबाधाकाल कहलाता है। अबाधाकाल का शब्दशः अर्थ होता है' कर्म की बाधा - पीड़ा न उत्पन्न करने वाला काल । जैसे- किसी ने सप्तम नरक का उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम का आयुष्य बांधा हो, तो भी तत्काल उसका कोई फल नहीं मिलता, वह कर्म उदय में आने पर ही फल दे सकता है, उससे पहले नहीं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध काल से उदयकाल तक के बीच में वह कर्म सत्ता में पड़ा रहता है। दिगम्बर परम्परा में इसे आबाधाकाल कहते हैं। आप कहेंगे कि कर्म के बन्ध होते समय काल के निश्चित हो जाने के बाद ही कर्म का उदय क्यों नहीं होता ? अमुक निश्चित काल तक उसका फलभोग क्यों नहीं होता ? इसके समाधान के लिये कर्मों को मादकद्रव्य से उपमा दी जाती है। जैसेभांग, गांजा, अफीम, चरस, गांजा, मद्य आदि नशीली चीजों का नशा कुछ समय के बाद ही चढ़ता है, उसी प्रकार बद्धकर्मपुद्गलों का प्रभाव भी एक निश्चित काल के पश्चात् ही होता है। मदिरा आदि के समान आत्मा पर असर डालने वाले कर्म की जितनी ही अधिक स्थिति होती है, उतने ही अधिक समय तक वह कर्म बंधने के बाद फल दिये बिना ही आत्मा में पड़ा रहता है। उसे ही अबाधाकाल कहते हैं। अबाधाकाल मुद्दतिया हुंडी-सा है। जैसे - मुद्दतिया हुंडी मुद्दत पूरी होने पर ही सिकारी जाती है, वैसे ही कर्म की स्थिति बंधने पर अमुक मुद्दत के पश्चात् ही, यानी - शुभअशुभकर्म का काल पकने पर ही वह उदय में आता है और उसका फल भुगवाता है । २ अबाधाकाल का परिमाण कर्मग्रन्थ में बद्ध कर्मों का अबाधाकाल उनकी स्थिति के अनुपात से बतलाते हुए कहा गया है कि जिस कर्म की उत्कृष्ट स्थिति जितने कोटिकोटि सागर - प्रमाण होती है, उस कर्म का उतने ही सौ वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट अबाधाकाल होता है। जैसे- किसी कर्म की स्थिति एक कोटिकोटि सागरोपम की है तो उस स्थिति में सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है। अर्थात् आज एक कोटिकोटि सागर की स्थिति को लेकर जो कर्म बांधा है, वह आज से 900 वर्ष बाद उदय में आएगा, और तब तक उदय में आता रहेगा, जब तक एक कोटिकोटि सागर प्रमाण काल समाप्त नहीं हो जाएगा । ३ १. न बाधा अबाधा, अबाधास्येव आबाधा । २. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ३२ (ख) आत्मतत्त्वविचार से, पृ. ३५८ (ग) होई अबाहकालो किर कम्मस्स अणउदयकालो । (घ) कम्मसरूवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूपेण । रूवेणुदीरणस्स व आबाहा जाव ताव हवे || ३. कर्मग्रन्थ भा. ५, विवेचन, पृ. ९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only -धवला, पृ. ६ - शतक गा. ४२, पृ. ६७ - गोम्मटसार (क) गा. १५५ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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