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________________ ४८४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) तीर्थंकर नामकर्म और आहारक द्विक की उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोटिकोटि सागर है और अबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त है। अर्थात् उनकी उत्कृष्ट तथा जघन्य अबाधा भी अन्तर्मुहूर्त मात्र है। आयुकर्म के सम्बन्ध में अबाधा स्थिति के अनुपातानुसार नहीं यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अबाधाकाल के सम्बन्ध में जो नियम पहले बताया गया था कि एक कोटिकोटि सागरोपम की स्थिति में सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है, वह नियम आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों के ही अबाधाकाल का प्रमाण जानने के लिए था। जैसे कि गोम्मटसार कर्मकाण्ड में कहा हैजैसे अन्य कर्मों में स्थिति के प्रतिभाग के अनुसार आबाधा (अबाधा) का प्रमाण निकाला जाता है, वैसे आयुकर्म में नहीं निकाला जाता। इसका कारण यह है कि अन्य कर्मों का बन्ध तो सर्वदा होता रहता है, किन्तु आयुकर्म का बन्ध अमुक-अमुक काल में ही होता है । ' आयुकर्म का अबाधाकाल अनिश्चित भी है आयुकर्म की स्थिति में अबाधाकाल का पूर्वोक्त नियम लागू नहीं होता। आयुकर्म की ३३ सागर, ३ पल्य तथा एक पल्य का असंख्यातवाँ भाग आदि जो स्थिति बतलाई है, तथा आगे भी बतलाएंगे, वह शुद्ध स्थिति है। उसमें अबाधाकाल सम्मिलित नहीं है । इस अन्तर का कारण यह है कि अन्य सात कर्मों की तरह आयुकर्म की अबाधा आयुस्थिति के अनुपात पर अवलम्बित नहीं है और न सुनिश्चित है, क्योंकि आयु के त्रिभाग में भी आयुकर्म का बन्ध अवश्यम्भावी नहीं है। उसमें भी त्रिभाग के भी त्रिभाग करते-करते आठ विभाग पड़ते हैं। उसमें भी अगर आयुबन्ध नहीं होता तो मरण से अन्तर्मुहूर्त पहले तो अवश्य हो जाता है । २ इसी अनिश्चितता के कारण आयुकर्म की स्थिति में उसका अबाधाकाल सम्मिलित नहीं किया गया है, क्योंकि वह स्थिति अनुभवयोग्य (अबाधारहित ) है । ३ १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. १०२ (ख) आउसस्स आबाहा ण द्विदि पडिभागमाउस्स । २. बंधति देवनारय- असंखनरतिरि छमाससेसाऊ । परभवियाऊ सेसा निरुवक्कम-तिभाग सेसाऊ ॥ सोवक्कमाऊया पुण सेस तिभागे, अहव नवमभागे । सत्तावीसमे वा अंतोमुहुर्ततिमेवा वि ॥ ३. (क) सुर-नारयाउयाणं अयरा तेत्तीस तिनि पलियाई । इयराणं चउसु वि पुव्यकोडितसो - अबाहाओ ॥ (ख) कर्मग्रन्थ, विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. १०२, १०४ Jain Education International For Personal & Private Use Only - गोम्मटसार ( क ) गा. १५८ - संग्रहणीसूत्र ३०१, ३०२ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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