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________________ ४७० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) कि मोहनीय कर्म का जघन्य अनुभाग-बन्ध क्षपक अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में होता है और शेष तीन कर्मों का जघन्य अनुभागबन्ध क्षपक-सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है। यह बन्ध इससे पहले नहीं होता, प्रथम बार ही होता है, इसलिये सादि है। और बारहवें आदि गुणस्थानों में जाने पर तो नियम से नहीं होता, अतः अध्रुव है। यह बन्ध अनादि भी नहीं है, क्योंकि उक्त गुणस्थानों में आने से पूर्व कदापि नहीं होता। साथ ही यह अभव्य के नहीं होता, अतः ध्रुव भी नहीं है । तथा प्रस्तुत कर्मों का उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध उत्कृष्ट संक्लेश वाला पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव एक या दो समय तक करता है। अनुत्कृष्टबन्ध के बाद उत्कृष्ट बन्ध होता है, अतः वह सादि है। उससे एक या दो समय के बाद पुनः अनुत्कृष्ट बन्ध होता है। अतः वह सादि है तथा कम से कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक से अधिक अनन्तानन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के बाद उत्कृष्ट संक्लेश के होने पर पुनः उत्कृष्ट बन्ध होता है। अतः अनुत्कृष्ट बन्ध अधुत्व है। इस प्रकार जीव के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध बदलते रहते हैं, इसलिये ये दोनों सादि तथा अध्रुव हैं। ' गोत्रकर्म में अजघन्य और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सादि आदि चारों प्रकार का होता है, जबकि जघन्य और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध दो ही प्रकार का होता है । उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध के प्रकार वेदनीय और नामकर्म के प्रकारों की तरह समझ लेने चाहिए। यहाँ अब उनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध का विचार करते हैं- सातवें नरक का कोई नारक सम्यक्त्व के अभिमुख होता हुआ यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों को करता है। उनमें से अन्तिम अनिवृत्तिकरण में वह मिथ्यात्व का अन्तरकरण करता है। उस अन्तरकरण के द्वारा मिथ्यात्व की स्थिति के दो भाग हो जाते हैं - एक - नीचे की अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण स्थिति और दूसरा -शेष उपर की स्थिति । नीचे की स्थिति का अनुभवन करते हुए अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण स्थिति के अन्तिम समय में नीचगोत्र की अपेक्षा से जघन्य अनुभागबन्ध होता है। अन्य स्थान में यदि इतनी विशुद्धि होती तो उससे उच्चगोत्र का अजघन्य अनुभागबन्ध होता। इसी कारण सप्तम नरक के नारक का ही ग्रहण किया है, क्योंकि सातवें नरक में मिथ्यात्वदशा में नीच गोत्र का ही बन्ध बताया है। तथा जो नारक मिथ्यादृष्टि है, सम्यक्त्व के अभिमुख नहीं है, उसके नीचगोत्र का अजघन्य अनुभागबन्ध होता है । और सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर उच्चगोत्र का अजघन्य अनुभाग बन्ध होता है । नीच गोत्र का यह अजघन्य अनुभागबन्ध अन्यत्र सम्भव नहीं है। वह उसी अवस्था में पहले पहल होता है, इसलिए सादि है । सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर वही जीव उच्चगोत्र की अपेक्षा से गोत्रकर्म का अजघन्य अनुभागबन्ध करता है। अतः जघन्य अनुभागबन्ध अध्रुव है और अजघन्य अनुभागबन्ध सादि है। इससे पहले जो अजघन्य अनुभागबन्ध होता है, वह अनादि है। अभव्य का अजघन्यबन्ध ध्रुव है, और भव्य का अध्रुव है। इस प्रकार गोत्रकर्म के जघन्य अनुभागबन्ध के दो और अजघन्य अनुभाग-बन्ध के चार विकल्प होते हैं। १. वही, भा. ५ से पृ. २०३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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