SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 517
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम ४६९ एक साथ प्राप्त करने का इच्छुक अत्यन्त-विशुद्ध मिथ्यादृष्टि अपने गुणस्थान के अन्तिम समय में करता है। इसके सिवाय शेष सर्वत्र उनका अजघन्य अनुभागबन्ध होता है। ये देशविरत आदि अपनी-अपनी उक्त प्रकृतियों के बन्धकों में अत्यन्त विशुद्ध होते हैं। इसलिए उन-उन प्रकृतियों का जघन्य अनुबन्ध करते हैं। उसके बाद संयम आदि को प्राप्त करके वहाँ से गिरकर जब पुनः उनका अजघन्य बन्ध करते हैं तब वह बन्ध सादि होता है। उससे पहले का अजघन्य बंध अनादि होता है। अभव्य का बन्ध ध्रुव और भव्य का अध्रुव होता है। __ ४३ प्रकृतियों के अजघन्य अनुभागबन्ध का विचार करते समय सूक्ष्म-सम्पराय आदि गुणस्थानों में उनका जघन्य अनुभागबन्ध पहले बताया जा चुका है। वह जघन्य अनुभागबन्ध उन-उन गुणस्थानों में पहली बार होता है, अतः सादि है। तथा इन ४२ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश वाला पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव एक या दो समय तक करता है। उसके बाद पुनः अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है। इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध में सादि और अध्रुव दो ही विकल्प होते हैं। यह हुआ ध्रुवबन्धी प्रकृतियों के अजघन्य आदि चारों प्रकारों में सादि वगैरह भंगों का विचार।२।। शेष ७३ अध्रुवबन्धी प्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभाग (रस) बन्ध के सादि और अध्रुव दो ही प्रकार होते हैं, क्योंकि अध्रुवबन्धी होने के कारण इन प्रकृतियों का बन्ध सादि और अध्रुव ही होता है। - चार घातिकर्मों का अजघन्य अनुभागबन्ध चार प्रकार का होता है। जो इस प्रकार है-अशुभ-प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबन्ध और शुभ-प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध वही जीव करता है, जो उनके बन्धनों में सबसे विशुद्ध होता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय अशुभ हैं, अतः उनका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपक सूक्ष्म-सम्पराय गुणस्थान के अन्त समय में होता है। मोहनीय कर्म का बन्ध नौवें गुणस्थान तक होता है। अतः क्षपक अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के अन्त में उसका भी जघन्य अनुभागबन्ध होता है क्योंकि मोहनीय कर्म के बन्धनों में यह सबसे विशुद्ध स्थान है। इन गुणस्थानों के सिवाय शेष सभी स्थानों में उक्त चारों कर्मों का अजघन्य अनुभागबन्ध होता है। ग्यारहवें और दसवें गुणस्थान में उक्त चारों कर्मों का बन्ध न करके, वहाँ से गिर कर जब जब पुनः अजघन्य अनुभागबन्ध होता है, तब वह बन्ध सादि है। जो जीव नौवें-दसवें आदि गुणस्थानों में कभी नहीं आए हैं, उनका अजघन्य अनुभागबन्ध अनादि है। क्योंकि (प्रवाहरूप से) अनादिकाल से उसका विच्छेद नहीं हुआ है। अभव्य का बन्ध ध्रुव है, और भव्य का बन्ध अध्रुव। इस प्रकार घातिकों का अजघन्य अनुभागबन्ध चार प्रकार का हुआ। शेष तीन-जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध के सादि और अध्रुव दो ही प्रकार होते हैं। पहले कहा गया है १. कर्मग्रन्थ भा. ५, (पं. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. २00-२0१ २. कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. २0१, २०२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy