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________________ ४६८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) है। यह जघन्य अनुभागबन्ध अजघन्य-बन्ध के बाद होता है, अतः सादि है। तथा कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक चार समय तक जघन्य बन्ध होने के पश्चात् अजघन्यबन्ध होता है, अतः जघन्यबन्ध अध्रुव है और अजघन्य बन्ध सादि है। उसके बाद उसी भव में या किसी दूसरे भव में पुनः जघन्य बन्ध के होने पर अजघन्य बन्ध अध्रुव होता है। इस प्रकार शेष तीनों प्रकार के बन्ध सादि और अध्रुव होते हैं। ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों के अनुभागबन्ध-चतुष्टय का विचार ___अब ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों के बन्धों के सम्बन्ध में विचार करते हैं-तैजस-चतुष्क के सिवाय शेष ध्रुवबन्धी प्रकृतियों का अजघन्य अनुभागबन्ध चार प्रकार का होता है। वह इस प्रकार है-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, और ५ अन्तराय का जघन्य । अनुभागबन्ध सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान के अन्त में होता है। अन्य स्थानों में उनका. अजघन्य अनुभागबन्ध ही होता है; क्योंकि ये प्रकृतियाँ अशुभ हैं। तथा ग्यारहवें गुणस्थान में उनका बन्ध ही नहीं होता। अतः ग्यारहवें गुणस्थान से च्युत होकर जो अनुभाग-बन्ध होता है, वह सादि है, उससे पहले वह बन्ध अनादि है। भव्य का बन्ध अध्रुव है और अभव्य का ध्रुवा संज्वलन-चतुष्क का जघन्य अनुभागबन्ध क्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान मेंअशुभ प्रकृति होने से बन्ध-विच्छेद के समय में एक समय होता है। इसके सिवाय अन्य सब जगह अजघन्य बन्ध होता है। ग्यारहवें गुणस्थान में बन्ध नहीं होता है। अतः वहाँ से च्युत होकर जो अजघन्यबन्ध होता है, वह सादि है, इससे पहले अनादि है। अभव्य का बन्ध ध्रुव है, जबकि भव्य का अध्रुव निद्रा, प्रचला, अशुभ वर्ण, अशुभ गंध, अशुभ, रस, अशुभ स्पर्श, उपघात, भय और जुगुप्सा का क्षपक अपूर्वकरण में अपने-अपने बन्ध-विच्छेद के समय में एक समय तक जघन्य अनुभागबन्ध और अन्य सब स्थानों पर अजघन्य अनुभाग बन्ध होता है, जो सादि है। बन्ध-विच्छेद से पहले उनका बन्ध अनादि है। भव्य का बन्ध अध्रुव है और अभव्य का बन्ध ध्रुव है। प्रत्याख्यानावरण-कषाय का जघन्य अनुभागबन्ध संयम की प्राप्ति के अभिमुख देशविरत अपने गुणस्थान के अन्त समय में करता है। उससे पहले उसका जो बन्ध होता है, वह अजघन्य बन्ध है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय का जघन्य अनुभागबन्ध क्षायिक सम्यक्त्व और संयम को एक साथ प्राप्त करने का इच्छुक अत्यन्त विशुद्ध अविरतसम्यग्दृष्टि जीव अपने गुणस्थान के अन्त समय में करता है। इसके सिवाय शेष सर्वत्र उसका अजघन्य-अनुभागबन्ध होता है। स्त्यानद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय का जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्व और संयम को १. (क) वही (मरुधरकेसरी) से पृ. २६१ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ५ (विवेचन) (पं. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. १९५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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