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________________ रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम ४६७ बन्ध क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थान में देवगति के योग्य तीस प्रकृतियों के बन्ध-विच्छेद के समय होता है। इसके सिवाय अन्य स्थानों में, यहाँ तक कि उपशमश्रेणि में भी उक्त प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध ही होता है। किन्तु ग्यारहवें गुणस्थान में उनका बन्ध बिलकुल नहीं होता। अतः ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर जब कोई जीव उक्त प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, तब वह बन्ध सादि कहलाता है। इस अवस्था को प्राप्त होने से पहले उसका वह बन्ध (प्रवाहरूप से) अनादि कहलाता है, क्योंकि उस जीव के वह बन्ध अनादिकाल से चला आता है। भव्य जीव का बन्ध अध्रुव होता है, जबकि अभव्यजीव का ध्रुव। इस प्रकार पूर्वोक्त आठ प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध चार प्रकार का होता है। किन्तु शेष उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध के सादि और अध्रुव दो ही विकल्प होते हैं। चूंकि तैजसचतुष्क और वर्णचतुष्क का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपक (श्रेणि) के अपूर्वकरण गुणस्थान से पहले नहीं होता, इसलिए वह सादि है तथा एक समय तक होकर आगे नहीं होता, इस कारण अध्रुव है। ये प्रकृतियाँ शुभ हैं, इसलिए इनका जघन्य अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश वाला पर्याप्त संज्ञीपंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव ही करता है, तथा कम से कम एक समय और अधिक के अधिक दो समय के बाद वही जीव उनका अजघन्य अनुभागबन्ध करता है; कालान्तर में उत्कृष्ट संक्लेश होने पर वह उनका पुनः जघन्य अनुभागबन्ध करता है। इस प्रकार अजघन्य और जघन्य अनुभागबन्ध भी सादि और अध्रुव ही होते हैं। .. वेदनीय और नामकर्म के रसबन्ध की दृष्टि से सादि-आदि प्ररूपणा ___ वेदनीय कर्म की साता और नामकर्म की यशःकीर्ति प्रकृति की अपेक्षा से इन दोनों कर्मों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपक सूक्ष्म-सम्पराय नामक गुण-स्थान में होता है। क्योंकि इस गुणस्थान में उक्त दोनों कर्मों की ये दो प्रकृतियाँ ही बंधती हैं। इनके सिवाय अन्य सभी स्थानों में वेदनीय और नामकर्म का अनुत्कृष्ट अनुभाग-बन्ध होता है। मगर ग्यारहवें गुणस्थान में उनका बन्ध नहीं होता। अतः ग्यारहवें गुणस्थान से च्युत होकर जो अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, वह सादि है। भव्यजीव का बन्य अध्रुव और अभव्य जीव का बन्ध ध्रुव है। इस प्रकार वेदनीय और नामकर्म का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपक सूक्ष्म-सम्यराय नामक गुणस्थान में होता है, इससे पहले किसी भी गुणस्थान में वह बन्ध नहीं होता, इस कारण सादि है। और बारहवें आदि गुणस्थानों में तो नियमतः बन्ध होता नहीं, इसलिए अध्रुव है। तथा इन कमों का जघन्य अनुभागबन्ध मध्यम परिणाम वाला सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव करता १. (क) तस-वन-तेय-चउ-मणि-खगइ-दुग पणिंदी-सास-परधु-च्चे । ___ संघयणा-गिइ-नपु-त्थी-सुभगिय-रति मिच्छ-चउइया ॥ -कर्मग्रन्थ भा. ५ (पं. कैलाशचन्द्रजी) पृ. १९४ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ५, विवेचन (मरुधरकेसरी) से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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