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________________ ४४४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) प्रसिद्ध रहा है। इसी प्रकार काव्य में, कथा में तथा गद्य में भी शृंगाररस, वीररस, करुणरस, रौद्ररस, हास्यरस एवं भयानकरस में से कोई भी एक रस प्रधान होता है, कहीं-कहीं वात्सल्यरस एवं शान्तरस भी होता है। सूरदास ने वात्सल्य रस का प्रवाह अपनी कविताओं में श्रीकृष्ण की बाल्यलीला का आधार कर बहाया है, जबकि भर्तृहरि ने अपने वैराग्य शतक को शान्तरस से सराबोर किया है। फिल्म, नाटक, भाषण, सम्भाषण आदि में भी हाउस फुल (House full) तभी होता है, जब उनमें रस लबालब भरा हो। ऐसा कौन-सा क्षेत्र है, जिसमें रस की सार्वभौमता न हो ? खेत में कृषिकर्म करने वाले कृषक से लेकर, राष्ट्र पर अनुशासन करने वाले राष्ट्रपति तक के जीवन में निरन्तर रस की ही उज्ज्वल यशोगाथा गाई जा रही है। सभी क्षेत्रों में रसों को सरसता - निरसता प्रदाता कार्मिक रसाणु परन्तु इन सब रसों का महत्त्व उस रस की अपेक्षा से कुछ भी नहीं है। उस रस के बिना, इन सब रसों में सरसता नहीं आ सकती। क्योंकि जीवन के सभी क्षेत्रों में निहित रसों को रसिकता या सरसता प्रदान करने वाले कार्मिक रसाणु ( रसबन्धरूप कर्मरसाणु) हैं। इसलिए उक्त कार्मिक रस को हम सर्वरसों का स्रोतरूप रसाधिराज या रसेश्वर कह सकते हैं । ' कार्मिक रसाणु (बद्ध कर्मरस) ही समस्त संसारी जीवों का भाग्य विधाता कार्मिक रसाणु (बद्ध कर्मरस) ही समग्र संसार का संसारी जीवों का भाग्यविधाता है। उसकी नाराजी हो जाए तो मनुष्य को दुःख की गहरी खाई में धकेल सकता है, और अगर उसकी प्रसन्नता या मेहरबानी हो जाए तो सुख के झूले में झुला सकता है। इस दृष्टि से कार्मिक रसाणु (बद्ध कर्मरस) के दो पहलू हैं- ( १ ) एक हैविश्व के लिए त्रासरूप आसुरी शक्ति का पहलू, और (२) दूसरा है - विश्व के लिए आशीर्वादरूप दैवी शक्ति का पहलू । इन दोनों पहलुओं में से प्रथम को शास्त्रीय परिभाषा में पाप और दूसरे को पुण्य कहते हैं, अथवा सीधे शब्दों में क्रमशः अशुभ रस और शुभ रस कहते हैं। समग्र विश्व का संचालक सत्ताधीश : कर्म-रसाणु समग्र विश्व का संचालन आज इन्हीं अशुभ रसों (पाप-अध्यवसायों) और शु‍ रसों (पुण्य-परिणामों-अध्यवसायों) के गणित के आधार पर चलता है। बार-बा प्रतिकूलता, विपत्ति, कष्ट, चिन्ता, त्रास, भय एवं निराधारता, पीड़ित एवं पददलि अवस्था इत्यादि अनिष्ट-संयोगरूप फलभोग, आत्मप्रदेशों पर चिपटे हुए पापकर्म वे अशुभ रसाणुओं के अशुभ प्रभाव का फल (परिणाम) है। जबकि अनुकूलता निश्चितता, निर्भयता, सम्पन्नता, स्वस्थता, सुख-शान्ति, आश्वासन-प्राप्ति १. रसबंधो, पीठिका (विषय परिचय) से भावग्रहण, पृ. १७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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