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________________ रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम ४४५ पुण्यकर्म के शुभ रसाणुओं के शुभ प्रभाव का फल है। इस प्रकार पुण्य और पाप को दो आँखों के इशारे से विश्व का समग्र तंत्र चलाने वाला शुभाशुभकर्म-रस संसारी जीवों के लिए आध्यात्मिक सत्ताधीश बना हुआ है। समग्र विश्व की गतिविधि कर्म-रसाणुओं पर निर्भर हम जो कुछ भी मन से सोचते हैं, वचन से शब्दोच्चारण करते हैं, अथवा काया से जो चेष्टा, आचरण या प्रवृत्ति करते हैं, उनके पीछे भी इन कार्मिक रसाणुओं की जादुई करामात है। चक्रवर्ती हो, चाहे इन्द्र जैसा भौतिक शक्तियों का प्रतिनिधि हो, अथवा अडोल पर्वत शिखर को हिला देने में शक्तिमान् बलिष्ठ व्यक्ति हो, या अगाध, अथाह महासागर को भी भुजबल से तैर कर पार करने में समर्थ हो, अथवा अनन्त आकाश में पक्षियों की तरह स्वेच्छा से विहार करने में पारंगत हो, परन्तु आखिरकार तो ये सब अतिसूक्ष्म प्रबल कार्मिक रसाणुओं की शक्ति का ही तुच्छ उत्पादन रूप है। इस जीवसृष्टि में ऐसा कोई भी संसारी प्राणी नहीं है, जिस पर कार्मिक रसाणुओं की विपाक (फलदान) शक्तिरूप परछाईं न पड़ी हो। जल में रहने वाला लघुतम जलजन्तु हो, अथवा महाकाय . मगरमच्छ हो, स्थल पर चलने वाली लघुकाय चींटी हो या हिमालय जैसा ऊँचा कद्दावर हाथी हो, अथवा निरक्षर-भट्टाचार्य अपढ़ ग्रामीण हो या कोई प्रखरबुद्धि सम्पन्न वैज्ञानिक हो, गगन-विहारी कोई पक्षी हो या विमानचारी आकाशविहारी ,अवकाशयात्री हो; छोटे-बड़े सभी जीवों में कार्मिक रसाणुओं की गणितात्मक व्यवस्था सदैव काम करती है। कर्म-रसाणुओं के बिना सांसारिक कषाय-युक्त प्राणी की कोई भी गति-प्रगति या अवगति-अधोगति नहीं हो सकती। अनुभाव (रस) बन्ध ही आत्मा के साथ कर्म का खास बन्ध जीव और कर्म दो स्वतंत्र द्रव्य हैं। जीव (आत्मा) अमूर्त है-स्पर्शगुण से रहित है, और कर्म-पुद्गल मूर्त है-स्पर्शगुणयुक्त है। प्रश्न होता है कि पुद्गल में तो स्पर्शगुण . होता है, इसलिए उसका अन्य स्पर्शगुण युक्त पुद्गलद्रव्य के साथ द्रव्य बन्ध हो जाता है, किन्तु जीवद्रव्य में स्पर्शगुण का अभाव होने से बन्ध कैसे हो सकता है? जब इन दोनों का बन्ध ही नहीं हो सकता, तब अनुभागबन्ध या रसबन्ध के होने का प्रश्न ही नहीं होता । इस प्रश्न का समाधान आचार्यों ने किया है कि "रत्तोबंधदि कम्म'-रागद्वेष के कारण जीव कर्मबन्ध को प्राप्त होता है। यह समाधान प्राथमिक दृष्टि से तो ठीक है, परन्तु फिर भी यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि स्पर्शगुण के अभाव में जीव के साथ स्पर्शवान् कर्मपुद्गल का बन्ध हो कैसे जाता है ? यदि कहें कि पुद्गल का पुद्गल के साथ बन्ध होता है, और जीव उसमें अनुप्रविष्ट रहता है, तब फिर प्रश्न होता है कि जीव पुद्गल में अनुप्रविष्ट क्यों हुआ? पुद्गल के स्थानान्तरित होने पर जीव उसका अनुगमन क्यों करता है? इसका समाधान देते हुए आचार्य कहते हैं-जीव १. रसबन्धो; (पीठिका) से (मुनि जयशेखरविजयजी) से, पृ. १७-१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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