SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 491
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३ रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम रस की संसार में सर्वव्यापकता वर्तमान दृश्यमान जगत् में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो 'रस' शब्द से परिचित न हो। रस शब्द में ही ऐसा कुछ चमत्कार है कि इसका नाम सुनते ही कान खड़े हो जाते हैं, हृदय छलछला उठता है, मनोमयूर नाच उठता है, जिह्वा से पानी टपकने लगता है। पांचों इन्द्रियों के विषयरस में जब मानव भावविभोर हो जाता है, आसक्त होकर बार-बार उस रस का आस्वादन करने के लिए लालायित होता है। मन भी क्रोधादि कषायों तथा राग, द्वेष, मोह, मद एवं मात्सर्य आदि वैभाविक भावों के रस में जब मूर्च्छित एवं मत्त हो जाता है, तब उसे दुनिया की किसी भी वस्तु का भान नहीं रहता । विश्व के सभी क्षेत्रों में रस की प्रधानता दृष्टिगोचर होती है। किसी को फुटबॉल आदि के खेल में रस होता है, किसी को जुआ खेलने में। किसी को कबड्डी और ताश खेलने में रस होता है, किसी को शिकार खेलने में रस होता है। किसी को संगीत -श्रवण में रस आता है तो किसी को नृत्य एवं वाद्य में रस आता है। किसी को एकमात्र धन कमाने और धन जोड़-जोड़ कर रखने में रस आता है तो किसी को परोपकार के कार्यों में धन व्यय करने में रस होता है। इसी प्रकार किसी को सरस स्वादिष्ट विविध पकवान तथा मसालेदार व्यंजनों के चखने और स्वाद लेने में रस आता है। कोई चाट पकौड़ी आदि को खाने में रस लेता है। " जीवन के समस्त क्षेत्रों में रस का ही महत्व यों देखा जाए तो रसोई का सारा आधार रस पर है। अगर रसोई में रस नहीं है; उसमें से रस रुष्ट होकर चला गया है तो उसे कोई भी पसंद नहीं करेगा। इसके विपरीत रसोई यदि रसदार बनी है तो भोजन करने वाले प्रशंसा करते नहीं अघाते'कितना सरस (टेस्टफुल - Tasteful) भोजन है यह ?' फल चाहे जितना आकर्षक हो, यदि उसमें रस न हो तो उसे कोई सूंघेगा भी नहीं । षट्स भोजन भारतीय घरों में (४४३) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy