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________________ ४४२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) . पूर्वकृत पुण्य से वैभव मिल जाने पर मनुष्य को उसका मद हो जाए तो उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। बुद्धिभ्रष्टता से पाप होता है। अतः तिलोयपण्णत्ति (९/५२) में कहा गया है-ऐसा (तीव्रकषाययुक्त) पुण्य हमें कभी प्राप्त न हो। “सम्यग्दृष्टि यदि निदान न करे तो उसका पुण्यबन्ध परम्परा से मोक्ष की ओर ले जाने में कारण बनता है। क्योंकि तब वह देवगति में भी भोगों में न फंस कर यहाँ से च्यव कर उत्तम मनुष्य जन्मग्रहण करके तप-संयम द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेता है।". पुण्य-पापबन्ध के रहस्य को हेयोपादेयत्व को समझाने के लिए हमने 'पुण्य और पाप : आनव के रूप में' तथा 'पुण्य : कब और कहाँ तक हेय या उपादेय?' इन दोनों निबन्धों में पर्याप्त प्रकाश डोला है। १. (क) भावसंग्रह गा. ४०४ (ख) देखें-कर्मविज्ञान खण्ड ६ में पुण्य-पाप से सम्बन्धित दो निबन्ध, पृ. ६३१ से ६८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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