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________________ पाप और पुण्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध ४४१ रत्नत्रय पुण्यबन्ध का कारण नहीं, राग कारण है पुण्यबन्ध के सम्बन्ध में एक चर्चा यह भी प्रचलित है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञानयुक्त व्रतादिरूप सम्यक्चारित्र पांचवें गुणस्थान से प्रारम्भ होता है तथा सयोगीकेवली (१३वें गुणस्थानवी जीवन्मुक्त) के भी सातारूप होता है तो क्या रत्नत्रय भी पुण्यबन्ध का कारण है या मोक्ष का भी है? 'पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय में इसका सुन्दर समाधान किया गया है कि असमग्र (असम्पूर्ण) एकदेशादिरूप रलत्रय का भावन करने वाले के जो कर्मबन्ध होना है, वह अवश्य ही विपक्ष (रागादि) कृत है; क्योंकि मोक्ष का उपाय बन्ध का उपाय नहीं हो सकता। अर्थात-एक ही कारण से दो परस्पर विरोधी कार्यबन्ध और मोक्ष-कैसे हो सकते हैं? इसी तथ्य को आगे स्पष्ट किया गया है-'यहाँ रत्नत्रय तो मोक्ष (निर्वाण) का ही कारण है, बन्ध का कारण नहीं। उसके होते हुए जो पुण्य का आस्रव (बन्ध) होता है, वह शुभोपयोग का अपराध हैं।' ___ 'जिस अंश में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्र है, उस अंश में बन्ध नहीं होता, जिस अंश में राग है, उस 'अंश' से बन्धन होता है।'' पुण्यबन्ध विषयेच्छा मूलक न हो पुण्यबन्ध के विषय में चेतावनी देते हुए कार्तिकेयानुप्रेक्षा (गा. ४०९-४१२) में कहा गया है कि पुण्यबन्ध की भावना से पुण्यकार्य नहीं करने चाहिए। जो व्यक्ति विषयसुखों की लालसा से पुण्य की अभिलाषा करता है, उसके परिणामों में विशुद्धि कैसे हो सकती है? पुण्यबन्ध के मूल हैं-विशुद्धिरूप परिणाम ! विवेकी पुरुष अगर उच्चभूमिकारूढ़ नहीं है, शुद्ध परिणामों पर सतत टिका नहीं रह सकता, इसलिए वह अशुभपरिणामों से बचने के लिए पुण्यकार्य सहजभाव से करता है, परन्तु पुण्यबन्ध से इहलौकिक पारलौकिक सुखभोगों की, धन-सन्तानादि की या सम्मान-प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है इस-तीव्र इच्छा से पुण्य कार्य करना, निदानरूप होने से अशुभ-कर्मफल का भागी होना सम्भव है, दुर्गति भी हो सकती है; क्योंकि विषयसुख-तृष्णा रूप कषाय से प्रेरित होकर पुण्य-उपार्जन की तीव्र अभिलाषा रखता है, उसके भावों (परिणामों) में विशुद्धि कैसे होगी? जिसे इहलोक-परलोक की वांछा नहीं है उसे ही पुण्य की प्राप्ति होती है। अतः पुण्यबन्ध का कारण मन्दकषाय है। मन्दकषायवश शुभ परिणाम होने पर ही जीव पुण्यबन्ध करता है, पुण्य की पूर्वोक्त प्रकार की तीव्र इच्छा पुण्यबन्ध का कारण नहीं है। . १. (क) पुरुषार्थसिद्धयुपाय २११, २२० (ख) जैन सिद्धान्त (प. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. १३०-१३१ . २. (क) कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४०९-४१२ (ख) जैनसिद्धान्त पृ. १२७ (ग) तिलोयपण्णत्ति ९/५२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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