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________________ ४४0 कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) (९) नमस्कारपुण्य-गुणिजनों और महापुरुषों को श्रद्धाभक्तिपूर्वक नमस्कार करना, अपनी आत्मा को विकृत करने वाले जाति आदि आठ मद तथा बड़प्पन के अहंकार को छोड़कर नम्रता, विनय एवं निरहंकारिता धारण करना, महान् आत्माओं के प्रति स्वयं को समर्पित कर देना। पहले हम जो पुण्यबन्ध के विभिन्न कारण बता आए हैं, उन सभी का एक या दूसरे प्रकार से इन नी पुण्यबन्ध-हेतुओं मे समावेश हो जाता है।' पुण्य कर्म की बन्ध योग्य ४२ प्रकृतियाँ ___ पुण्यकर्म की बन्धयोग्य बयालीस प्रकृतियाँ हैं। पूर्वोक्त कारणों में से किसी भी कारण से पुण्य का बन्ध होने पर, उनका सुखद फलभोग ४२ प्रकार से होता है। तत्त्वार्थसूत्र में सातावेदनीय, सम्यक्त्व-मोहनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद, शुभ-आयु शुभनाम और शुभगोत्र, ये प्रकृतियाँ पुण्यरूप बताई हैं। सम्यक्त्व-मोहनीय, हास्य, रति और पुरुषवेद इन चार घातिकर्मविशिष्ट मोहनीयकर्म की प्रकृतियों को पुण्य प्रकृतियों में कर्मप्रकृति, नवतत्त्व आदि ग्रन्थों में नहीं माना गया है। तत्त्वार्थसूत्र-प्रोक्त चार प्रकृतियों को पुण्यरूप मानने वाला मत अतिप्राचीन ज्ञात होता है। ___ वे ४२ पुण्य-प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-(१) सातावेदनीय, (२ से ४) मनुष्यायु, देवायु और तिर्यज्वायु, (५-६) मनुष्यगति, देवगति, (७) पंचेन्द्रिय जाति, (८ से १२) पांच शरीर, (औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण), (१३ से १५) तीन अंगोपांग (औदारिक, वैक्रिय, आहारक), (१६) समचतुरस्र-संस्थान, (१७) वज्र-ऋषभनाराच संहनन, (१८ से २१) प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, (२२-२३) दो आनुपूर्वी (मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी), (२४) अगुरुलघु, (२५) पराघात, (२६) उच्छ्वास, (२७) आतप, (२८) उद्योत, (२९) प्रशस्त-विहायोगति, (३.०) त्रस, (३१) बादर, (३२) पर्याप्त, (३३) प्रत्येक, (३४) स्थिर, (३५) शुभ, (३६) सुभग, (३७) सुस्वर, (३८) आदेय, (३९) यश कीर्ति, (४०) निर्माणनाम, (४१) तीर्थंकरनाम और (४२) उच्चगोत्र। ये ४२ ही पुण्य-प्रकृतियाँ शुभयोग से निष्पन्न होती हैं तथा पुण्यबन्ध से प्राप्त होने बाले सुखद फलभोग कराने के लिए हैं।३ १. (क) नवविधे पुण्णे पण्णत्ते तं.-अन्नपुणे, पाणपुण्णे, वत्थपुण्णे, लेणपुण्णे, सयणपुण्णे, मणपुण्णे, वअण्णे, कायपुण्णे, णमोक्कारपुण्णे । -स्थानांगसूत्र स्थान ९, सू. २५ (ख) परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्य-पापयोः प्राज्ञाः । तस्मात् पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः ॥ -आत्मानुशासन २३ २. सवेध-सम्यक्त्व-हास्य-रति-पुरुषवेद शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् । -तत्त्यार्थ ८/२६ ३. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५, गाथा १५ (ख) पंचसंग्रह (प्रा.) गा. ४५३ से ४५५ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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