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________________ ४२६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) नाना प्रकार के पापकर्म करते हैं, इस प्रकार फिर पापकर्मबन्ध करते हैं। यह सब उनके पूर्वबद्ध पापकर्म का ही फल है । " १ नेन्द्रिय-हीनता का कारण : पापकर्मबन्ध कई लोग नेत्रेन्द्रिय से हीन होते हैं, कितना ही इलाज कराने पर भी उनका नेत्ररोग नहीं जाता, यह किस कर्म के बन्ध का फल है? इसके उत्तर में प्रज्ञापना एवं भगवती आदि शास्त्रों में कहा गया है - स्त्री-पुरुष के सुन्दर रूप को देखकर विषयानुराग करने से, किसी कुरूप को देखकर जुगुप्सा अथवा निन्दा करने से, अन्धे का उपहास करने तथा उसे चिढ़ाने से मनुष्यों, पशुओं या जन्तुओं की आँखें फोड़ देने, उन्हें कष्ट देने से, कुशास्त्र अश्लील पुस्तकें एवं गंदे पत्रों को पढ़ने से, गंदे कामोत्तेजक दृश्यों को देखने से, क्रूर दृष्टि से देखने से चक्षुरिन्द्रियविषयों में आसक्त होने से एवं नेत्रों द्वारा कुचेष्टा करने से, चक्षुदर्शनावरणीय एवं असातावेदनीय, मोहनीय आदि कर्मों का बन्ध करके वे अन्धे, काने, चक्षुहीन अथवा नेत्ररोगी होते हैं । २ श्रन्द्रियहीनता के कारण : पाप कर्मबन्ध इन्हीं सूत्रों में कहा गया है कि श्रोत्रेन्द्रिय हीनता ( कानों की वधिरता या कर्णरोगादि) तभी होती है, जब व्यक्ति वैरविरोध की बातें, कामोत्तेजक, पापवर्द्धक विकथा, परपीड़ाकारी वचन, सद्धर्म के विरोध, क्रोध-लोभ- अहंकारवर्द्धक तथा घृणोत्पादक बातें सुनकर खुश होता है; असत्य को सत्य और सत्य को असत्य सिद्ध करता है, दीन-दुःखियों की करुण पुकार पर ध्यान नहीं देता, सद्बोधदायक शास्त्रवचन नहीं सुनता, सुनकर भी उनका अपलाप एवं विरोध करता है। इस पापकर्मबन्ध (अचक्षु-दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं असातावेदनीय के बन्ध) के कटु फल हैं। ३ १. दीणो जण - परिभूओ, असमत्थो उअर भरण- मित्तेपि । वित्तेण पावकारी, तह वि हु पावफलं एअं ॥ - पंचाशक व १ द्वार गा. १९२ २. (क) नेत्तावरणे, नेत्त - विण्णाणावरणे । - प्रज्ञापनासूत्र २३/१/१० (ख) चक्खुदंसणावरणे, पासियव्वं ण पासति, पासिओकामे वि ण पासति, पासित्ता वि ण पासति, उच्छण-दंसणिया वि भवति । - प्रज्ञापनासूत्र २३/१/१० 'अणिट्ठारूया, अणिट्ठा लावणं । (ग) अमण्णुणा रूवा, मणोदुहया, वइदुहया, कायदुहया। (घ) पडिणीययाए निण्हवणयाए, अंतराएणं, पदोसेणं, अच्चासाएणं, ३. (क) सोतावरणे, सोयविण्णाणावरणे । (ख) अमणुण्णा सद्दा, मणोदुहया, वइदुहया, कायदुहया । अचक्खुदंसणावरणे । (ग) अणिट्ठा सद्दा, अणिट्टा लावण्णं । (घ) पडिणीययाए, निण्हवणयाए, अंतराएणं, पदोसेणं विसंवाद - जोगेणं । Jain Education International विसंवादजोगेणं । For Personal & Private Use Only - भगवती ८/९/३७ - प्रज्ञापनासूत्र २३/१/१०, १२, ११, १५ - भगवतीसूत्र ८/९/३७-३८ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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