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________________ पाप और पुण्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध ४२५ अंगविकलता दुःख-दैन्यादि का कारण हिंसाजनित पापकर्मबन्ध प्रश्नव्याकरणसूत्र में स्पष्ट बताया है कि "जो लोग किसी प्रबल पुण्योदयवश नरक से निकलकर किसी प्रकार से मनुष्ययोनि को प्राप्त होने पर भी पापकर्मबन्ध के कारण प्रायः विकृत-विकलरूप वाले, कुबड़े, टेढ़े-मेढ़े अंग वाले, बौने, बहरे, काने, टूटे, पंगु, लंगड़े-लूले, मूक (गूंगे), अस्पष्टभाषी, अंधे, अपाहिज, दुर्बल, वातज, पित्तज या कफज व्याधि से पीड़ित, अल्पायु, कुसंहनन एवं कुसंस्थान वाले, कुलक्षण, कुरूप, कृपण, दीन-हीनसत्त्व, नित्य-सुखशान्तिरहित, असुख-दुःखभागी दिखाई देते हैं। ऐसे मनुष्य नरक से निकलकर पापकर्मों के अवशिष्ट रहने से इसी प्रकार नरकयोनि, तिर्यञ्चयोनि तथा कुमनुष्यत्व को प्राप्त होकर भटकते हुए अनन्त पापकारी दुःख पाते हैं। और यह उसी प्राणिवध (हिंसा से हुए पाप कर्मबन्ध) का फलविपाक है, जो इस लोक में तथा परलोक में अल्पसुख और बहुदुःख वाला है, महाभयकंर है, अत्यन्त कर्मरज के कारण प्रगाढ़ है, दारुण एवं कर्कश है और असाता पैदा करता है। (उस घोर हिंसा के कारण हुआ कर्मबन्ध) उसे हजारों वर्षों तक बिना भोगे नहीं छोड़ता।"१ निर्दोष त्रसप्राणियों के वध से बद्ध पाप का फल : विविध अंग विकलता ___कर्मविज्ञान के पंचम खण्ड में 'कर्मफल के विविध आयाम' के सन्दर्भ दुःखविपाक सूत्र में पापकर्मबन्ध के विविध दारुण दुःखद फलों का दिग्दर्शन कराया है। उससे तथा प्रत्यक्ष अनुभवों पर से यह निश्चित हो जाता है, पापकर्मबन्ध का फल देर-सबेर से अवश्य मिलता है। योगशास्त्र में भी स्पष्ट कहा है-पंगुत्व, कुष्टरोग, अंगविकलता आदि सब निर्दोष त्रस प्राणियों के वध से हुए पाप-कर्म-बन्ध के फल हैं।२ दीन-दुःखी एवं अपमानित होने का कारण : पूर्वबद्ध पापकर्म "कई लोग अत्यन्त दीन, दुःखी, दरिद्र होते हैं कि उदरभरणमात्र में असमर्थ होते हैं, जगह-जगह लोगों से तिरस्कार पाते हैं, अपमानित होते हैं, धन कमाने के लिए १. जे वि य इह माणुसत्तणं आगया कहं वि नरगाओ उव्यट्टिया अधण्णा ते वि य दीसंति पायसो विकय-विकलरूवा खुज्जा वडगा य वामणा य बहिरा काणा कुंटा य पंगुला वियला य मूया य मम्मणा य अधिल्लग एगचक्खु-विणिहय-सपिल्लन्यवाहिरोग-पीलिय-अप्पाउय-सत्त-वज्झवाला कुलक्खणुक्किण्णदेह-दुब्बल-कुसंघयण-कुप्पमाण-कुसंठिया कुरूवा किवणा य हीण-दीण-सत्ताणिच्च सोक्ख-परिवज्जिया असुह-दुक्ख-भागी णरगाओ उवट्टिता इह सावसे स-कम्मा एवं नरग-तिरिक्खजोणिं कुमाणुसत्तं च हिंडमाणा पावंति अणंताई दुक्खाई पावकारी, एसो सो पाणवहस्स फलविवाओ इहलोइए परलोइएण य अवेदयित्ता अत्थि हु मोक्खो ति ।" -प्रश्नव्याकरण, प्रथम अधर्मद्वार २. पंगु-कुष्टि-कुणित्वादि दृष्ट्या हिंसाफलं सुधी । नीरागस्त्रसजंतूनां हिंसा संकल्पतस्त्यजेत् ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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