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________________ ४२४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) चतुर्गतिरूप संसार - परिभ्रमण से पीड़ित ( बाधित) होता है। जिन लोगों के प्रति मोह-ममत्व करते हैं, वे लोग भी उनके साथ ममत्ववश पापकर्म का बन्ध करके क्लेश पाते हैं।" " धनादि तथा सहोदर भाई-बहन आदि ( सगे-सम्बन्धी) कोई भी (सजीव या निर्जीव पदार्थ) पाप-कर्मबन्ध के फलस्वरूप प्राप्त शारीरिक-मानसिक वेदना से रक्षा नहीं कर सकते।" क्योंकि इन सब के प्रति (विनाशी परभावों के प्रति ) ममत्वादि बन्धन के स्थान हैं। 9 पापकर्म के अनेक पर्यायवाचक शब्द इसी कारण 'पाइअ - नाममाला' में पाप कर्म के अनेक पर्यायवाची शब्दों का निरूपण करते हुए कहा गया है - "दुरित, कलुष, दुष्कर्म, अघ, अधर्म, मिथ्यात्व, मोह, विफल, अलीक, असत्य तथा असद्भूत, ये सभी पापकर्म के पर्यायवचक शब्द हैं। " २. विषय - लोलुपता के कारण वैरपरम्परा, नाना दुःखों से पीड़ित, आर्त्त उन विविध पापकर्मों के बन्ध के दुःखद फलों का आचारांग में वर्णन करते हुए कहा है- विषयलोलुप मनुष्य अपने ही द्वारा किये हुए विषयलोलुपता के पापबन्ध के कारण अपनी आत्मा के प्रति वैर बढ़ाता है, वह बाद में ( उन बद्ध कर्मों के उदय में आने पर) स्वयं को आर्त्त - दुःखपीड़ित देख त्राण (रक्षण) का मार्ग नहीं जानता हुआ केवल क्रन्दन करता है। इसलिए न तो स्वयं पाप कर्मबन्ध करे और न दूसरों से कराये। विषयसुखार्थी मानव लालसाग्रस्त होकर सावद्य कार्य करता हुआ स्वकृत पापकर्म से मूढ़ बनकर विपर्यय को प्राप्त होता है । ३ १. (क) चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि । अनं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चइ ॥२॥ (ख) सयं तिवायए पाणे, अदुवा अन्नेहि घायए । तं वाऽणुजाणाइ, वेरं वड्ढइ अप्पणी ॥३॥ (ग) जेसिं कुले समुप्पन्ने, जेहिं वा संवसे नरे । ममाइ लुप्पइ बाले, अणेणा अण्णेहिं मुछिए ||४|| (घ) वित्तं सोयरिया चेव, सव्वमेयं न ताणइ । - सूत्रकृतांग सूत्र श्रु. १, अ. १, उ. १गा. २, से ५ तक २. दुरिअ कलर्स दुक्कर्म, अघं अहम्मो य कम्मसं पावं । मिच्छा मोहं विहलं अलिअमसच्च असम्भूयं ॥ ३. (क) कडेण मूढो पुणो तं करेइ लोहं । (ख) वेरं वड्ढइ अप्पणो । (ग) अट्टमेयं तु पेहाए अपरिण्णाए कंदइ । (घ) "तम्हा पावकम्मं नेव कुज्जा न कारवेज्जा । Jain Education International - पाइअ णाममाला गा. ५३ - आचारांग श्रु. १, अ. २, उ. ५ -वही श्रु. १, अ. २, उ. ५ -वही श्रु. १, अ. २, उ. ६ W For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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