SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 475
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाप और पुण्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध ४२७ जिह्वेन्द्रिय-हीनता का कारण : पापकों का बन्ध कई मनुष्यों को जिह्वेन्द्रिय की हीनता प्राप्त होती है, उसके पीछे भी अचक्षुदर्शनावरणीय, असातावेदनीय, अशुभ नामकर्म, मोहनीयकर्म आदि कई पापकर्मबन्ध कारण हैं-मदिरा, मांस आदि अभक्ष्य पदार्थों का खाना, षट्रस-पदार्थों के प्रति अतिलोलुपता रखना, रसना-पोषणार्थ महारम्भ करना, प्राणि हिंसा का उपदेश देकर मांसाहार, अंडा, मत्स्यपालन आदि का प्रचार करना, कुव्यसनों के सेवन का उपदेश करने से, किसी का मर्म प्रकाशित करना, गूगों, तोतलों आदि की हंसी उड़ाना, साधु-साध्वी आदि गुणिजनों की निन्दा करना, दूसरों की जिह्वा का छेदन-भेदन करना आदि। ऐसे पाप-कर्मबन्ध के कारण मनुष्य गूंगा, तोतला आदि बनता है, उसके वचन लोगों को अच्छे नहीं लगते, तथा उसके मुंह से दुर्गन्ध निकलती है।' कई लोगों को घ्राणेन्द्रिय (नाक) की हीनता पूर्वबद्ध पापकर्म के कारण प्राप्त होती है, उसके निम्नोक्त कारण प्रज्ञापना, भगवती आदि में बताए गए हैं-सुगन्धित पदार्थों पर अत्यासक्ति रखने से, दुर्गन्धित पदार्थों के प्रति अत्यधिक घृणा, द्वेष आदि होने से, नासिकाहीन या बेडोल नाक वाले व्यक्ति की हंसी उड़ाने से, उन्हें दुःख एवं पीड़ा देने से तथा मनुष्य-पशु आदि की नासिका का छेदन-भेदन करने से। कई लोगों को हाथों की हीनता प्राप्त होती है, वह भी निम्नोक्त पूर्वबद्ध पापकर्मों के कारण होती है, यह प्रज्ञापना, भगवती आदि शास्त्रों में बताया गया है। जैसेचौर्यकर्म करने से, दूसरे के हाथ काट डालने से, हाथ से झूठा लेख लिखने से, कुशास्त्रों की रचना करने से, खोटा तोल और माप करने से, हस्त-हीन लोगों की हंसी उड़ाने से, दूसरे के हाथों का छेदन-भेदन, ताड़ण-मारण, मरोड़ण आदि करने से, पक्षियों के पंख काटने आदि से पापकर्मों का बन्ध होता है, जिससे फलस्वरूप हस्तहीनता प्राप्त होती है। कई लोग पैरों से लूले-लंगड़े एवं हीन हो जाते हैं, उनके भी पूर्वबद्ध निम्नोक्त पापकर्म कारण हैं-हिंसा आदि पापकार्यों में आगे बढ़ने से, धर्मकार्य में पीछे हटने से, चींटी आदि जंतुओं को असावधानीपूर्वक जानबूझ कर पैरों तले रौंदने से, अन्य छोटे-बड़े जीवों के, पशुओं तथा मनुष्यों के पैर तोड़ने से, लूले-लंगड़े व्यक्ति का १. (क) रसावरणे, रसविण्णाणावरणे । (ख) अचक्खुदंसणावरणे । (ग) अमणुण्णा रसा, मणोदुहया, वइदुहया, कायदुहया । (घ) अणिट्ठा रसा, अणिट्ठा लावणं । -प्रज्ञापनासूत्र २३/१/१०, ११, १२, १५ (ङ) पडिणीययाए, निण्हवणयाए, अंतराएण, पदोसेणं, अच्चासाएणं, विसंवाद- जोगेणं । -भगवती ८/९/३७-३८ (च) पर-दुक्खणयाए, परपरितावणयाए । -भगवतीसूत्र ७/६/१० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy