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पाप और पुण्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध ४२१ इसी ग्रन्थ में पापानव (पापबन्ध के कारण) के योग्य परिणामों का उल्लेख करते हुए कहा गया है-अत्यन्त प्रमादयुक्त चर्या, कलुषता, विषयों के प्रति लोलुपता और पर-अपवाद (दूसरों के प्रति आक्षेप, निन्दा) करना, ये पापानवकारक हैं।'
दशवैकालिक सूत्र में स्पष्ट कहा गया है-"जो व्यक्ति अयतना (अविवेक सेशरीर और आत्मा का भेद विज्ञान न करके) से चर्या करता है, खड़ा होता है, बैठता है, सोता है, खाता-पीता है, बोलता है, या अन्य किसी प्रकार की शारीरिक मानसिक प्रवृत्ति करता है, वह पाप कर्म का बन्ध करता है, जिसका कटुफल उसे भोगना पड़ता
है।"२
उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा गया है कि जो व्यक्ति मनोज्ञ रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श इन पांचों मनोज्ञ इन्द्रियविषयों तथा मन के मनोज्ञ भावों (विभावों) के प्रति राग, मोह, आसक्ति एवं ममत्व करता है, तथा अमनोज्ञ इन्द्रिय-विषयों या मनोभावों के प्रति द्वेष करता है; इष्टवियोग और अनिष्टयोग को पाकर या अतृत होने से अथवा मनचाहा न होने से अत्यन्त दुःखी होता है। उनके उपभोग में एवं मनचाहा कार्य न होने पर सदैव मन में संक्लेश एवं आर्तध्यान करता है, मनोज्ञ की प्राप्ति
और अममोज्ञ को हटाने-मिटाने के लिए हिंसा, झूठ-फरेब, चोरी, ठगी एवं परिग्रह (अत्यधिकं ममत्वपूर्वक संग्रह) करता है, फलतः लाभ-दोष वश मायामृषावाद के चकर में पड़ता है। इस प्रकार वह प्रदुष्टचित्त होकर पापकर्म का बन्ध एवं चयोपचय करता है, जिससे उसे विपाककाल में पुनः पुनः दुःख होता है; दुःखों की परम्परा बढ़ती है।३
सचमुच, पापकर्म-बन्ध वह है, जो आत्मा को शुभ से बचाकर अशुभ में ले जाता है, और उसके पश्चात् असातावेदनीय के उदयवश वह दुःख भोगती है। इसलिए भगवती आराधना में पापकर्म की परिभाषा दी गई है-जिससे अनिष्ट पदार्थों की प्राप्ति हो, ऐसे भावों को पापकर्म कहते हैं।४ ।
पापकर्मबन्ध का अस्तित्व अनुमान से भी सिद्ध है कई लोग पुण्य-पापकर्म के अस्तित्व को मानने से ही इन्कार कर देते हैं, उनके इस कथन का 'वदतो व्याघात' न्याय से ही खण्डन हो जाता है। पूर्वोक्त विवरण से पापकर्म के होने का स्वयं ही नहीं, सारा आस्तिक जगत् साक्षी है, उस व्यावहारिक
१. चरिया पमायबहुला कालुस्स लोलदा य विसएसु । पर-परितावपवादो, पावस्स य आसवं कुणदि ।।
पंचास्तिकाय, १३९ २. अजय चरमाणो य पाणभूयाई हिंसइ।
बंधइ पावयं कम त से होइ कडुयं फलं । इत्यादि ६ गाथाएँ ।-दशवैकालिक अ.४ गा.१ से ६ ३. उत्तराध्ययन अ.३२ की गाया २२ से ९८ तक ४. (क) पाति रक्षत्यात्मानं शुभादिति पापं, तदसवैधादि । सर्वार्थसिद्धि ६/३/३२० (ख). पाप नाम अनभिमतस्य प्रापकं ।
-भगवती आराधना वि. ३८/१३४/२१
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