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________________ ४२२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) प्रत्यक्ष को कैसे झुठलाया जा सकता है। विशेषावश्यक भाष्य में एक युक्ति द्वारा इस तथ्य को समझाते हुए कहा गया है-जैसे अंकुररूप कार्य को देखकर बीज का अनुमान लगा लिया जाता है कि जब अंकुर है तो बीज अवश्य होना चाहिए, इसी प्रकार सुख और दुःख की अनुभूति होती है, उस पर से यह अनुमान किया जा सकता है कि सुख और दुःख की अनुभूतिरूप कार्य का कोई न कोई कारण अवश्य ही होना चाहिए, वह कारण है-क्रमशः पुण्य कर्म और पापकर्म।' पापकर्म का स्थानांगवृत्ति में निर्वचन किया गया है-"जो आत्मा को पतन में ग्रथित कर देता है, आत्मा का पतन कर देता है, अर्थात्-आत्मा के आनन्दरस को सोख लेता है, शुष्क कर देता है, नष्ट कर देता है, वह पाप है।"२ वास्तव में जब जीव पापकर्म का आचरण करता है, तब अंदर से उसकी आत्मा कांपती है, उसके मन में भय का । संचार होने लगता है। पापकर्म के दो प्रकार : प्रच्छन्न और स्पष्ट __पापकर्म दो प्रकार के होते हैं-एक गोपनीय और दूसरा स्पष्ट। गोपनीय पापकर्म भी दो प्रकार के होते हैं-एक छोटा और एक बड़ा। किसी सत्ताधीश या धनिक से मिलते समय मन में उक्त सत्ताधीश या धनाढ्य के कुटिल कारनामों को जानते हुए भी मन में गुप्त रखकर उसको नमस्कार करना, उससे हाथ मिलाना अथवा उसकी प्रशंसा करना, या उसे प्रतिष्ठा देना, यह गोपनीय लघु पाप है। परन्तु गोपनीय महापाप विश्वासघात करना, ठगी करना, द्रोह करना आदि हैं। स्पष्ट पाप अनन्त संसार बढ़ाने वाला तथा जगत् में अपकीर्ति, अप्रतिष्ठा और निन्दा कराने वाला होता है। उसके भी दो प्रकार हैं-लघु और महान्। कुलाचार परम्परा आदि कारणों से कई बार व्यक्ति आरम्भ-परिग्रहादि का पाप कर बैठता है, अथवा प्रहार करने वाले के प्रति प्रतिप्रहार करता है। वह लघु है परन्तु कई बार व्यक्ति जानबूझ कर निर्दोष पशुपक्षियों की, निर्दोष मानवों की हत्या करता रहता है, लूट-पाट करता है, चोरी-डकैती करता है, बलात्कार करता है, अनैतिक उपायों से धनार्जन करता है, दूसरों की अमानत-धरोहर को हड़प लेता है। ये सब स्पष्ट महापाप हैं।३ पापकर्मबन्ध का फल : किसी न किसी दुःख के रूप में __पापकर्म चाहे प्रच्छन्न हो या स्पष्ट (प्रत्यक्ष) हो. पाप ही है. उससे पापकर्म का बन्ध होता है। इतना जरूर है लघु पाप से अल्प पापकर्म का बन्ध होता है, जबकि १. सुख-दुःखानुभूतेर्हेतुरस्ति कार्यत्वादंकुरस्येव बीज यस्य हेतुत्वं तत्कर्म तस्मादस्ति (पुण्य-पाप) कर्मेति। -विशेषावश्यक भाष्य १९१० २. पाशयति गुण्डयति आत्मान पातयति, चात्मनः आनन्दरस शोषयति क्षपयतीति पापम् । -स्थानांगवृत्ति, स्थान १ ३. इह पाप द्विधा-गोप्य स्फुटं च । गोप्यमपि द्विधा-लघु महच्च । स्फुटमपि द्विधा-कुलाचारेण निर्लज्जत्वादिना च । --धर्मसंग्रह, अधिकार २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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