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________________ ४२० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) वह वर्तमान में पापकर्म (बन्ध) करता है, भूतकाल में उसने पापकर्म (बन्ध) किया था, या भविष्य में पापकर्म करेगा।” अर्थात् - तीनों काल में पापकर्मबन्ध के ही फल नाना प्रकार के दुःख के रूप में भोगने पड़ते हैं।' साथ ही कई नासमझ या नास्तिक - अश्रद्धालु लोग पूर्वोक्त प्रकार के पापकर्म करते हैं और विविध प्रकार के आडम्बर करते हैं, लोगों को विविध प्रकार के प्रलोभन देते हैं और अपने पाप कृत्यों को छिपाने के लिए नाना मिथ्या प्रपंच करते हैं, जनता की दृष्टि में अपने-आपको शुद्ध, उत्कृष्ट, प्रभावशाली एवं महान् सिद्ध करने के दुष्प्रयास करते हैं, परन्तु सूत्रकृतांग में ऐसे लोगों के लिए कहा है कि वे अपने पापकर्मों को छिपाकर दुगुने पापबन्ध करते हैं, यह उन बालजीवों की दूसरी मन्दता - मूढता है । २ पापकर्म छिपाने से छिप नहीं सकते कई यह सोचते हैं कि पापकर्मों के बन्ध से हम भगवान् के या देवी देवों के मन्दिर में अधिकाधिक चढ़ावा चढ़ाकर या उनका मन्दिर बनवाकर, अथवा किसी धर्मस्थान या धर्मसंस्था और समाज के लिए दान देकर छूट जाएँगे, परन्तु यह भ्रान्ति है। इसका निराकरण करने के लिए दशवैकालिक में स्पष्ट कहा है- “ पूर्व में दुश्चीर्ण दुष्प्रतिक्रान्त (सम्यक्प्रकार से अनिवृत्ति) रूप में कृत जो भी पापकर्म हैं, उनका वेदन (फलभोग) किये बिना छुटकारा नहीं हो सकता, वेदन करने पर ( भोगने पर ) ही छुटकारा हो सकता है। अथवा तपस्या (बाह्य - आभ्यन्तर तपश्चरण) केवल सकामनिर्जरा के हेतु से हो तो उससे पापकर्मों को नष्ट किया जा सकता है। " ३ पापकर्मबन्ध के कारण और कटुपरिणाम इसी प्रकार पापबन्ध के कारणों का उल्लेख करते हुए योगसार में कहा गया है“ अर्हन्तादि पूज्यपुरुषों की निन्दा करना, समस्त जीवों के प्रति निर्दयता का भाव रखना, निन्दनीय आचरणों में आसक्ति रखना आदि पापकर्मबन्ध के कारण है । ४ पंचास्तिकाय में कहा गया है - आहारादि चार संज्ञाएँ, तीन अशुभ लेश्याएँ, इन्द्रियवशता, आर्त्त - रौद्र-ध्यान एवं दुष्प्रयुक्त ज्ञान (ज्ञान का ठगी आदि में दुरुपयोग करना), तथा मोह; ये (भावात्मक) पापार्जन के प्रदायक हैं । ५ १. नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं पावे कम्मे जे य कडे, जे य कज्जइ, जे य कज्जिस्सइ, सव्वे से दुक्खे । (दुःखहेतु-संसार - निबन्धनत्वाद् दुःखम्) | - भगवतीसूत्र ७ श. ८ उ. २. पार्व काऊण राय अप्पाणं सुद्धमेव ववहरइ । दुगुर्ण करेइ पावं, बीयं बालस्स मंदता ॥ ३. पावाणं खलु भो कडाणं कम्माणं पुव्विं दुच्चिण्णाणं अवेदइत्ता ; तवसा वा झोसइत्ता । ४. निन्दकत्वं प्रतीक्ष्येषु नैर्वण्यं सर्वजन्तुषु । निन्दिते चरणे रागः पापबन्ध- विधायकः ॥ ५. सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अत्त - रुद्दाणि । गाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होति ॥ Jain Education International - सूत्रकृतांग श्रु. १, अ. ४, उ. १ दुप्पडिकंताणं वेदइत्ता मोक्खो, णत्थि - दशवैकालिक, रइवक्का चूलिया - योगसार (अ.) ४/३८ - पंचास्तिकाय १४० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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