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________________ ४१० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) . देशघातिनी कर्मप्रकृतियाँ : स्वरूप और संख्या ___ जो प्रकृति आत्मा के गुण का एकदेश से घात करती है, वह देशघातिनी कहलाती है। इस लक्षण के प्रकाश में मतिज्ञानावरण आदि चारों केवलज्ञान के उस अनन्तवें भाग का एकदेश से घात करते हैं, जो केवलज्ञानावरण से अनावृत रह जाता है। जब कोई छद्मस्थ जीव मति आदि चार ज्ञानों की विषयभूत वस्तु को जानने में असमर्थ होता है, तब इसे मतिज्ञानावरण आदि चार आवरणों के उदय का ही फल-जानना चाहिए। किन्तु मति आदि चार ज्ञानों के अविषयभूत अनन्तगुणों को जानने में जो उसकी असमर्थता है, उसे केवलज्ञानावरण के उदय का प्रताप समझना चाहिए। चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, और अवधिदर्शनावरण भी केवलदर्शनावरण से अनावृत केवलदर्शन के एकदेश का घात करते हैं। अतः ये देशघाती हैं। इनके उदय में, . जीव चक्षुदर्शन आदि के विषयभूत विषयों को पूरी तरह नहीं देख सकता। किन्तु उनके अविषयभूत अनन्तगुणों को केवलदर्शनावरण के उदय होने के कारण ही देखने में असमर्थ होता है। संज्वलन कषायचतुष्क और नौ नोकषाय भी चारित्र के एकदेश का घात करती हैं। इसलिए देशघाती हैं, क्योंकि इनके उदय से व्रती पुरुषों के मूलगुण और उत्तरगणों में अतिचार लगते हैं, जबकि अन्य कषायों का उदय अनाचार का जनक है। अन्तरायकर्म की पांचों प्रकृतियाँ भी देशघातिनी हैं, क्योंकि दान, लाभ, भोग और उपभोग के योग्य जो पुद्गल हैं, वे सभी पुद्गल-द्रव्य के अनन्तवें भाग हैं। अर्थात्-सभी पुद्गल द्रव्य इस योग्य नहीं हैं कि उनका देन-लेन आदि किया जा सके। . देने-लेने, भोगने और प्राप्त होने में आने योग्य पुद्गल बहुत ही थोड़े हैं। उन भोगयोग्य पुद्गलों में से भी एक जीव सभी पुद्गलों का दान, लाभ, भोग और उपभोग नहीं कर सकता। चूंकि उन पुद्गलों का थोड़ा भाग सभी जीवों के उपयोग में सदा आता रहता है। अतः दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय और उपभोगान्तराय देशघाती हैं। तथा वीर्यान्तराय कर्मप्रकृति भी एकदेशघाती हैं। क्योंकि वीर्यान्तराय कर्म का उदय होते हुए भी सूक्ष्म निगोदिया जीव को इतना क्षयोपशम अवश्य रहता है, जिससे कर्म और नोकर्म वर्गणाओं का ग्रहण वगैरह करता है। वीर्यान्तराय. कर्म के क्षयोपशम की तरतमता के कारण सूक्ष्म निगोदिया से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के जीवों की न्यूनाधिकला पाई जाती है। यदि वीर्यान्तराय सर्वधाती हो तो जीव के समस्त वीर्य को आवृत करके उसे जड़ की तरह निश्चेष्ट कर डालता। अतः वह भी देशधाती है। इस प्रकार पच्चीस प्रकृतियाँ (दिगम्बर मतानुसार सम्यक्त्वमोहनीय-सहित २६ प्रकृतियाँ) देशघातिनी समझनी चाहिए।२ १. सव्वे वि य अइयारा संजलणाणं तु उदयओ होति । मूलच्छेज पुण होइ बारसहं कसायाणं ।। -पंचाशक ८४४ अर्थात-संचलन कषाय के उदय से समस्त अतिचार होते हैं किन्त शेष १२ कषायों के उदय से तो व्रत के मूल का ही छेदन हो जाता है। यानी व्रत जड़ से ही नष्ट हो जाता है। २. (क) कर्मग्रन्थ पंचम भाग गा. १३-१४ के विवेचन से. पृ. ४३-४४ (ख) गोम्मटसार (क.) मू. ३९-४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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