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________________ घाती और अघाती कर्म-प्रकृतियों का बन्ध ४०९ प्रत्याख्यानावरणीय कषाय सर्वविरति चारित्र का घात करती है। मिथ्यात्वमोहनीय भी सम्यक्त्व गुण का सर्वात्मना घात करता है। अतः ये बीस सर्वघाती कर्म प्रकृतियाँ हैं। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में सम्यक्त्व-मिथ्यात्व कर्म प्रकृति को (उदय की अपेक्षा से) सर्वघाती में माना है, क्योंकि सम्यग-मिथ्यात्व के उदय में सम्यक्त्व की गन्ध भी नहीं रहती। सम्यग्मिथ्यात्व मोहनीय प्रकृति में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों के अस्तित्व का विरोध है। अर्थात्-उस समय न तो सम्यक्त्व ही रहता है और न मिथ्यात्व ही। केवल मिथ्यात्वमोह की प्रकृति सर्वघाती क्यों हैं? क्योंकि यह सम्यक्त्व के सब अवयवों का विनाश करती है, अतः सर्वघाती है। प्रत्याख्यानावरण कषाय इसलिए सर्वघाती है कि वह अपने प्रतिपक्षी सर्वप्रत्याख्यान (संयम) गुण का घात करती है। वेदनीय कर्म अघाती भी, घाती भी गोम्मटसार कर्मकाण्ड में बताया है कि यद्यपि वेदनीय को अघातिया कर्म प्रकृति में गिनाया है, परन्तु वह सर्वथा अघातिया नहीं है, क्योंकि वेदनीय कर्म घातिकर्मवत् मोहनीय के भेद-रति-अरति के उदयकाल को लेकर ही जीव के गुण को घातता है। इसी कारण इसे घाती कर्मों के बीच में मोहनीय से पहले गिनाया गया है। दूसरी बात यह है कि वेदनीय के दो कार्य हैं-(१) विषय भोगों का संयोग-वियोग कराना और (२) उस संयोग-वियोग के निमित्त से दुःख-सुख की प्रतीति या वेदन कराना। परन्तु वेदन वाला यह कार्य मोह के साथ रहने पर ही सम्भव है। क्योंकि बाह्य पदार्थों के संयोग-वियोग होने पर अथवा बाह्य पदार्थों में इष्टानिष्ट की या सुख-दुख के वेदन सम्बन्धी कल्पना मोह के अधीन है, इसलिए इस कर्म का व्यापार भी मोहनीय के सहवर्ती है। इसलिए मोही जीवों में इसके दो कार्य उपलब्ध होते हैं, और वीतरागियों में केवल एक। चूंकि सुख-दुख का वेदन चेतनभाव है, जड़ शरीर का कोई संयोगीभाव नहीं। इसलिए अघातिया होते हुए भी वेदनीय को घातिवत् माना जाता है।२ । अन्तरायकर्म कथंचित् अघाती है - यद्यपि अन्तरायकर्म को घाति कर्म माना है, तथापि वह अघातिकर्मवत् है। यह समस्त जीवों के गुणों का घात करने में समर्थ नहीं है। नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन कर्मों के निमित्त से (शरीरादि की अपेक्षा से) अन्तराय कर्म ही इसका व्यापार है। इसी कारण अघातियों के बाद और अन्तिम अन्तराय कर्म को कहा है। अन्तराय कर्म का नाश शेष तीन कर्मों के नाश के साथ अविनाभावी है। अन्तराय कर्म के नष्ट होने पर अघातिया कर्म भ्रष्टबीज के समान निःशक्त हो जाते हैं।३ १. कर्मग्रन्थ पंचम भाग विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. ४३-४४ २. (क) गोम्मटसार कर्मकाण्ड मू. १९/१२ (टीका) (ख) कर्मसिद्धान्त (ब्र. जि. व.) से, पृ. ५८-५९ ३. (क) गोम्मटसार कर्मकाण्ड, मू. १७/११ (ख) धवला १/१, १, १/४४/४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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