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________________ घाती और अघाती कर्म-प्रकृतियों का बन्ध ४११ मतिज्ञानावरणीयादि चार तथा केवलज्ञानावरणीय घाती हैं या अघाती ? - मतिज्ञानावरणीय आदि चार प्रकृतियों को देशघातिनी इसलिए बताया गया है कि ये चारों ज्ञानावरण ज्ञानांश को घात करने के कारण देशघाती हैं। जबकि केवलज्ञानावरण ज्ञान के प्रचुर अंशों का घात करने के कारण सर्वघाती है। केवलज्ञानावरणीय सर्वघाती कैसे है? क्योंकि केवलज्ञान का निःशेष अभाव मान लेने पर जीव के अभाव का प्रसंग आता है, अथवा आवरणीय ज्ञानों का अभाव होने पर शेष आवरणों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। इसका समाधान देते हुए धवला में कहा गया है-केवलज्ञानावरणीय कर्म देशघाती तो नहीं हो सकता, वह सर्वघाती ही है, वह केवलज्ञान को आवृत करता है, फिर भी जीव का अभाव नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञान के आवृत होने पर भी शेष चार ज्ञानों का अस्तित्व उपलब्ध होता है। इस पर फिर प्रश्न उठाया है, निश्चयनय से जीव में एकमात्र केवल-(पूर्ण) ज्ञान है, जब उसे पूर्णतया आवृत मानते हैं, तब फिर चार ज्ञानों का सद्भाव कैसे हो सकता है? उत्तर दिया गया है-ऐसा नहीं है। जिस प्रकार राख से ढकी हुई अग्नि से वाष्प की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार सर्वघाती आवरण के द्वारा केवलज्ञान के आवृत होने पर भी उससे ज्ञानों की उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं होता। सम्यग्-मिथ्यात्वमोहनीय एवं मिथ्यात्वमोहनीय सर्वघाती हैं या देशघाती? सम्यग-मिथ्यात्वमोहनीय का उदय सम्यग्दर्शन का निरन्वय विनाश तो करता नहीं है, फिर उसे सर्वघाती क्यों कहा गया? धवलाकार ने इसका समाधान यों दिया है कि वह सम्यग्दर्शन की पूर्णता का प्रतिबन्ध करता है, इस अपेक्षा से सम्यग्मिथ्यात्व को सर्वघाती कहा गया है। धवलाकार ने शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से कहा है कि सम्यक्त्व की अपेक्षा भले ही सम्यग्-मिथ्यात्व-स्पर्द्धकों में सर्वघातित्व हो, किन्तु अशुद्ध निश्चयनय की विवक्षा से सम्यग्मिथ्यात्व-प्रकृति के स्पर्द्धकों में सर्वघातित्व नहीं होता, क्योंकि उसका उदय रहने पर भी मिथ्यात्व-मिश्रित सम्यक्त्व का कण पाया जाता है। मिथ्यात्वप्रकृति तो सर्वघाती है ही, क्योंकि वह सम्यक्त्व के सब अवयवों का विनाश करती है।२ सम्यक्त्व-मोहनीय-प्रकृति देशघाती क्यों ? सम्यक्त्व-मोहनीय-प्रकृति देशघाती इसलिए है कि सम्यक्त्व प्रकृति का अनुभाग सम्यक्त्व के एकदेश को घातता है। अतः उसके देशघाती होने में कोई विरोध नहीं है। १. (क) ज्ञानविन्दु (जिनेन्द्रवर्णी) से (ख) धवला १३/५, ५, २१/२१४ २. (क) कषाय-पाहुड ५/४-२२/१९२ (ख) धवला १/११, ११/१६८ (ग) वही, ७/२, १, ७९/११० (घ) कषायपाहुड़ ५/४-२२/२00/१३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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