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________________ उत्तरप्रकृति-बन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३९७ बदनाम करके हतोत्साह करना चाहते हैं, उनकी उक्त शक्ति का ह्रास या नाश करने के लिए नानाविध योजनाएँ बनाते हैं, यहाँ तक कि उसे जहरीली वस्तु या तामसिक वस्तु देकर उसको मरवा देते हैं, या उसकी शक्ति को कुण्ठित या नष्ट कर डालते हैं, या कर डालने का उपक्रम करते हैं। इस प्रकार किसी भी व्यक्ति की उपयोगी शक्ति को हानि पहुँचाना या समाप्त करना वीर्यान्तराय कर्मबन्ध का कारण है। कोई व्यक्ति उत्साहपूर्वक, अध्ययन, शास्त्रज्ञान, जप, तप कर रहा हो, उसे.बहका कर उस कार्य से विरत कर देना, अथवा कोई समाजसेवा या अन्य कोई सत्कार्य में पराक्रम कर रहा हो, उसे बहकाना कि करलो समाजसेवा, अन्त में तो अपयश ही मिलेगा; इस प्रकार उसके उत्साह या वीर्यशक्ति को ठण्डा कर देना, निरुत्साहित कर देना भी वीर्यान्तरायकर्मबन्ध का भयंकर पाप करना है। कर्मग्रन्थ में वीर्यान्तराय कर्मबन्ध के दो मुख्य कारण बताए हैं-(१) वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर देवों की भावपूर्वक अर्चा-भक्ति करने में विघ्न डालने से, उनकी निन्दा तथा द्वेषवश आशातना करने से, उनके द्वारा प्ररूपित धर्म की निंदा करने से तथा उनके गुणानुवाद-स्तुति करने में रुकावट डालने से तथा (२) स्वयं हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह रूप पापों को करने, कराने तथा अनुमोदन से, साथ ही दूसरों को अहिंसादि धर्म, व्रत-नियम पालन, तप-संयमादि आचरण करते देख निरुत्साहित करने से, या उनके उक्त धर्माचरण में अन्तराय डालने से वीर्यान्तराय कर्मबन्ध होता है। ___अन्तरायकर्म का फलभोग : कैसे जानें-पहचानें ? __अन्तरायकर्म पांच प्रकार से जीव को अपने कृत कर्म का फल भुगवाता है-(१) दान का अवसर हाथ न आना-जो व्यक्ति दानान्तराय कर्म का बन्ध करता है, वह व्यक्ति दान देने का स्वर्णिम अवसर हाथ लगने पर भी दान देने का लाभ नहीं ले सकता, जैसे कपिला दासी, योग्य सुपात्र उसके द्वार पर आने पर भी वह दान नहीं दे सकती थी, क्योंकि दूसरों के दान में विमभूत बनी थी, इसलिए स्वयं भी दानधर्म की आराधना से वंचित रही। (२) लाभ का अवसर न मिलना-पूर्व-बद्ध लाभान्तरायकर्म के उदय में आने पर व्यक्ति लाभप्राप्ति का स्वर्ण अवसर हाथ लगने पर भी लाभ नहीं उठा पाता। कई लोग मांगने की कला में कुशल होने पर भी, तथा दानसामग्री सामने मौजूद होते हुए भी दान नहीं ले पाते। एक व्यक्ति व्यापारकला में बहुत कुशल है, परन्तु दूकान पर बैठने पर धीरे-धीरे दूकान घाटे में चलने लगती है, दूकान की चमक-दमक फीकी पड़ जाती है, यह लाभान्तरायकर्म का प्रकोपरूप फल समझना चाहिए।२ (३-४) भोग्य तथा उपभोग्य पदार्थों के सेवन न कर पाना-जिसने १. (क) कर्मप्रकृति से पृ. १२७, १२८ - (ख) ज्ञान का अमृत से, ३५६, ३६६ जिणपूयाविग्धकरो हिंसाइ-परायणो जयइ विग्धं ॥६१॥ -कर्मग्रन्थ भा. १ २. ज्ञान का अमृत से, पृ. ३६८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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