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________________ ३९६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार-विघ्न करना अन्तराय कर्म के आस्रव (बन्ध) का कारण है। अर्थात्-अन्तरायकर्म की पांचों प्रकृतियाँ दूसरों के दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य में अन्तराय अथवा विघ्न डालने से बंधती हैं। इन पांच कारणों की व्याख्या इस प्रकार है-(१) दान देने में रुकावट डालना-स्वयं शक्ति होते हुए, सामर्थ्य होते हुए भी धन, भोज्य, वस्त्रादि साधनों का जरूरतमंद को या अनुकम्पापात्र को दान न देना, दूसरा कोई किसी व्यक्ति को किसी प्रकार के साधन, श्रम आदि का दान दे रहा हो, अथवा किसी साधु या साध्वी को, या किसी अभावपीड़ित सत्पात्र को कोई व्यक्ति दान दे रहा हो, परन्तु कुछ संकीर्ण हृदय, कृपणवृत्ति के व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो दाता के मनोभावों को बदल देते हैं-इस तरह किस-किसको दान दोगे? भारत में तो ऐसे याचक करोड़ों की संख्या में हैं, इत्यादि प्रकार से उसे दान पाने में बाधा पहुँचा देना। (२) लाभ में अन्तराय डालना-किसी मनुष्य को यदि कहीं लाभ हो रहा है, उसका बिगड़ा हुआ काम बन रहा हो, सरकारी कोटा या किसी एजेंसी की प्राप्ति हो रही हो, अच्छा रिश्ता आने से पोजिशन अच्छी बन रही हो, अथवा बाप-दादों की सम्पत्ति का लाभ हो रहा हो, ऐसी स्थिति में विघ्न उपस्थित करने वाला व्यक्ति, या उसके लाभ. को हानि पहुँचाने वाला व्यक्ति लाभान्तराय कर्मबन्ध कर लेता है। (३) भोग्यपदार्थों की प्राप्ति में विघ्न डालना-कोई व्यक्ति भोग्य पदार्थ अपनी पात्रता अथवा स्थिति देखकर वह खूब उपभोग कर रहा है, उसे देखकर कोई ईर्ष्यालु, क्षुद्रहृदय व्यक्ति द्वारा उसके भोग्य पदार्थों की सुविधा में अकारण ही बाधा पहुंचाता है। उसे भोग्य पदार्थों की प्राप्ति नहीं होने देता, वह भोगान्तरायकर्मबन्ध कर लेता है। (४) उपभोग पदार्थों की प्राप्ति में विघ्न डालना-कोई व्यक्ति अपने मकान, वस्त्र, बर्तन, वाहन आदि उपभोग पदार्थों का उपभोग कर रहा है, या करना चाहता है, किन्तु कोई ईर्ष्यालु या विरोधी, अथवा अन्धश्रद्धालु, सवर्ण-असवर्ण में भेदभावकर्ता व्यक्ति उसमें विघ्न डालता है, अथवा कोई व्यक्ति किसी की निर्धनता पर दया लाकर उसे अपनी दूकान सौंप देता है, अथवा उसके परिवार आदि के लिए जीवनोपयोगी वस्तुओं का प्रबन्ध कर देता है, किन्तु कुछ अभागे ईर्ष्यालु व्यक्ति इन परोपकार पूर्ण शुभ कार्यों में भी दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं, बलपूर्वक या छलपूर्वक वे विज उपस्थित करते हैं, ऐसे विघ्नोत्पादक लोग उपभोगान्तराय कर्म बांध लेते हैं। (५) शक्ति को अनुशासन या कुण्ठित कर देना-किसी मनुष्य में शारीरिक, वाचिक, बौद्धिक एवं मानसिक शक्ति है, अथवा किसी मनुष्य में अपने व्यवहार से आकर्षित करने या अनुशासन या शासन करने की शक्ति है।' या उसमें रचनात्मक कार्य करने की या समाजसेवा करने की शक्ति है, अथवा ध्यान, उत्कट तप, जप, अहिंसादि व्रत-पालन करने आदि की शक्ति है, परन्तु कुछ तेजोद्वेषी, परोत्कर्ष-विजोत्पादक, ईर्ष्यालु लोग उसकी अमक शक्तियों को तथा उत्कर्ष को तथा प्रसिद्धि को देखकर जलते हैं, कुढ़ते हैं, लोगों में उन्हें १. ज्ञान का अमृत से पृ. ३६६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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