SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरप्रकृति-बन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - ५ ३९५ लाभान्तराय कर्म कहते हैं। (३) भोगान्तरायकर्म - स्वाधीन भोग सामग्री पास में होते हुए भी, तथा त्याग-प्रत्याख्यान न रहते हुए, किसी यथोचित पदार्थ का सेवन करने की इच्छा रहते हुए भी इस कर्म के उदय से रुग्णता, अंग-विकलता, दुर्घटना या कृपणता आदि कारणों से भोग्य (एक बार भोगने योग्य) वस्तुओं का भोग (सेवन का उपयोग ) नहीं कर पाता, उसे भोगान्तरायकर्म कहते हैं। (४) उपभोगान्तरायकर्मत्याग-प्रत्याख्यान न रहते हुए, उपभोग की इच्छा होने पर भी स्वाधीन विद्यमान उपभोग्य (जिन वस्तुओं का बार-बार उपभोग कर सके, उन) वस्तुओं का उपभोग जिस कर्म के उदय से जीव न कर सके, उसे उपभोगान्तराय कर्म कहते हैं। (५) वीर्यान्तरायकर्म - शरीर स्वस्थ व शक्तिशाली हो, युवावस्था हो, तथा सशक्त हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव सत्त्वहीन, वृद्ध और कमजोर व्यक्ति की तरह प्रवृत्ति करता है, अथवा कार्यविशेष में पराक्रम या पुरुषार्थ नहीं कर पाता, उत्साहहीन, निर्वीर्य या असमर्थ हो जाता है, उसे वीर्यान्तरायकर्म कहते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से वीर्यान्तरायकर्म के तीन भेद आध्यात्मिक शक्तियों की दृष्टि से वीर्यान्तरायकर्म के तीन भेद किये गए हैं - ( १ ) बाल-वीर्यान्तरायकर्म-समर्थ होते हुए भी तथा चाहते हुए भी इस कर्म के उदय से मिथ्यात्वयुक्त या अज्ञानप्रेरित सत्कार्य या नैतिक सांसारिक कार्य नहीं कर पाता । (२) पण्डित वीर्यान्तरायकर्म - सम्यक्दृष्टि साधु-साध्वीवर्ग मोक्ष की इच्छा होते हुए भी तथा त्याग-वैराग्य होते हुए भी इस कर्म के उदय से मोक्ष प्राप्तियोग्य पराक्रम या पुरुषार्थ नहीं कर पाता । (३) बाल - पण्डितवीर्यान्तराय कर्म - सम्यग्दृष्टि श्रावक-श्राविकावर्ग देशविरति चारित्र में पुरुषार्थ करना चाहता हुआ भी जिस कर्म के उदय से ( राजा श्रेणिक की तरह) उत्साह नहीं कर पाता, वह बाल - पण्डितवीर्यान्तराय कर्म कहलाता है। ' अन्तराय कर्मबन्ध के कारण भगवती सूत्र में अन्तराय कर्मबन्ध के पांच कारण बताये गए हैं- 'दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में अन्तराय (विघ्न) करने से अन्तराय कर्म (कार्मण) शरीर का प्रयोगबन्ध होता है । ' १. (क) विग्धं दाणे लाभे भोगुवभोगेसु वीरिए य । (ख) ज्ञान का अमृत से पृ. ३६५ (ग) कर्मप्रकृति से पृ. १२६, १२७ (घ) अंतराइएण कम्मे भंते ! कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविधे पण्णत्ते, तं. दाणंतराइए, लाभंतराइए, भोगंतराइए, उवभोगंतराइए, वीरियंतराइए । (ङ) दानादीनाम् । (च) तत्वार्थसूत्र विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से पृ. ३९२ Jain Education International - कर्मग्रन्थ टीका ५२ - प्रज्ञापना पद २३, उ. २, सू. २९३ - तत्त्वार्थसूत्र ८/१४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy