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________________ उत्तरप्रकृति-बन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३८५ दिखाई नहीं देते। इस नामकर्म का उदय पूर्वोक्त पृथ्वीकाय आदि पांच स्थावरों में ही होता है और वे समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। यह जीव-विपाकिनी प्रकृति है, जो शरीर के माध्यम से अपना कार्य अभिव्यक्त करती है। (३) अपर्याप्त नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं कर पाते, उसे अपर्याप्त नामकर्म कहते हैं। अपर्याप्त जीवों के दो प्रकार हैं-लब्ध्यपर्याप्त और करणापर्याप्त। जो जीव अपनी योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मरते हैं, वे लब्यपर्याप्त हैं। लब्ध्यपर्याप्त जीव भी आहार, शरीर और इन्द्रिय, इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरते हैं, पहले नहीं। क्योंकि सभी जीव आगामी भव का आयुष्य बन्ध करके ही मरते हैं और आयु का बन्ध उन्हीं जीवों को होता है, जिन्होंने आहार, शरीर और इन्द्रिय-पर्याप्ति पूर्ण करली है। इसके विपरीत जो जीव अभी तो अपर्याप्त हैं, किन्तु आगे यथायोग्य समस्त पर्याप्तियाँ पूर्ण करने वाले हैं, उन्हें करणाऽपर्याप्त कहते हैं। (४) साधारण नामकर्म-जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक ही शरीर हो अर्थात्-अनन्त जीव एक शरीर के स्वामी हों, उसे साधारण नामकर्म कहते हैं। साधारण-शरीरधारी इन अनन्त जीवों के जीवन, मरण, आहार और श्वासोच्छ्वास आदि परस्पराश्रित होते हैं। अर्थात्-जिस शरीर में एक जीव का मरण होने के साथ-साथ युगपत् अनन्त जीवों का मरण हो जाता है और यदि एक जीव की उत्पत्ति होती है तो अनन्त जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। इसीलिए तो इसे 'साधारण' कहते हैं। उनके आहार, जीवन, मरण आदि सभी समान काल में (युगपत्) होते हैं। पृथ्वीकाय आदि पांच प्रकार के स्थावर जीवों में से वनस्पतिकायिक जीव प्रत्येक और साधारण दोनों प्रकार के नामकर्म वाले हैं। उनकी पहचान के लिए कुछ लक्षण 'कम्मपयडी' में इस प्रकार दिये गए हैं-जिनकी शिराएँ (नसें) सन्धि पर्व अप्रकट हों, मूल, कन्द, त्वचा (छाल), कोंपल, टहनी (डाली), पत्र, पुष्प तथा बीजों को तोड़ने पर समान भंग हो; दोनों भंगों में परस्पर न लगे रहें, कंद, मूल, टहनी या स्कन्ध की छाल मोटी हो तो उसको साधारण और उसके विपरीत हो, अर्थात्-उसकी शिराएँ आदि प्रकट हों। मूल आदि को तोड़ने पर समान भंग न होते हों, मोटी छाल आदि न हो तो .प्रत्येक वनस्पति समझना चाहिए। (५) अस्थिर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से नाक, भौंह और जीभ आदि शरीर-अवयव अस्थिर अर्थात्-चपल होते हैं, उसे अस्थिर -प्रथम कर्मग्रन्थ २७ १. (क) थावर-सुहुम-अपज्जं साहारणमत्थिरमसुभदुभगाणि । दुस्सरऽणाइज्जाऽजस ॥ (ख) कम्मपयडी १00 (ग) कर्मप्रकृति से ११५ से ११८ (घ) गूढ-सिर-संधिपव्व समभंग, महीरुहं च छिण्णरुहं । साहारण-सरीरं, तव्विवरीयं च पत्तेयं ॥ कंदे मूले छल्ली-पवाल, सालदउ-कुसुमफलवीए । समभंगे सदिणंता, विसमे सदि होति पत्तेया ॥ -कम्मपयडी टीका १०० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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