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________________ ३८४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) स्वर (या कण्ठ) मधुर तथा प्रीतिकर व आकर्षक हो, वह सुस्वरनामकर्म कहलाता है। (९) आदेयनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का वचन सर्वमान्य (सर्वग्राह्य) हो, वह आदेयनामकर्म है। (१०) यश कीर्तिनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव की संसार में यश कीर्ति फैले, दिदिगन्त में महिमा फैले, वह यश कीर्तिनामकर्म है। किसी एक दिशा में ख्याति, प्रसिद्धि एवं प्रशंसा का फैलना कीर्ति है और सर्व-दिशाओं में प्रशंसा व ख्याति फैले वह यश है। अथवा दान, तप आदि से जो प्रसिद्धि होती है, उसे कीर्ति और पराक्रम, वीरता, शौर्य, शत्रु पर विजय आदि से जो प्रसिद्धि होती है, उसे यश कहते हैं। स्थावर-दशक की दस प्रकृतियाँ : स्वरूप और कार्य ___ एकेन्द्रिय (कवल स्पर्शेन्द्रिय-शरीर वाले) जीवों को स्थावर कहते हैं। उनमें (पृथ्वीकायिकादि पाँच प्रकार के जीवों में) ही उदय होने या प्राप्त होने वाली नामकर्म की दस प्रकृतियाँ स्थावर-दशक कहलाती हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं-(१) स्थावर, (२) सूक्ष्म, (३) अपर्याप्त, (४) साधारण, (५) अस्थिर, (६) अशुभ, (७) दुर्भग, (८) दुःस्वर, (९) अनादेय और (१0) अयश कीर्ति। इनमें से प्रत्येक के लक्षण इस प्रकार हैं (१) स्थावरनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव स्वयं स्थिर रहे, चल-फिर न सके, सर्दी-गर्मी आदि से बचने का उपाय न कर सके, वह स्थावरनामकर्म है। पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक, ये पाँच स्थावर जीव हैं। इनमें सिर्फ प्रथम-स्पर्शेन्द्रिय ही होती है। यद्यपि तेजस्काय और वायुकाय में स्वाभाविक गति तो है, किन्तु ये द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों की तरह सर्दी-गर्मी आदि से बचने की गति न होने से उन्हें स्थावरनामकर्म का उदय है। (२) सूक्ष्मनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को सूक्ष्म शरीर प्राप्त हो, उसे सूक्ष्मशरीरनामकर्म कहते हैं। सूक्ष्म शरीर न तो किसी को रोकता है और न किसी से रोका जा सकता है। वह प्रतिघात-रहित है। सूक्ष्म शरीर का मतलब सिर्फ चर्मचक्षुओं से न दिखना ही नहीं है, अपितु सूक्ष्मनामकर्म का उदय उन जीवों के शरीरों में वैसी सूक्ष्मता पैदा कर देता है कि सामूहिकरूप से रहे हुए वे सूक्ष्म (सूक्ष्मशरीर-युक्त) प्राणी १. (क) यदुदयादेकैकस्य जतोरेकैकं शरीरमीदारिकं वैक्रिय वा भवति तत् प्रत्येकं नाम | ___-प्रथम कर्मग्रन्थ टीका ४९ (ख) देत अट्ठियाइथिरं । -वही ४९ (ग) यदुदयात्नाभेरुपर्यवयवाः शुभा भवन्ति तत् शुभनाम । -वही टीका ४९ (घ) अणुवकए वि बहूणं होइ पिओ तस्स सुभगनामुदओ त्ति। -वही टीका ४९ (ङ) आइज्जा सव्वलोयग्गज्झवओ।। -वही ५० (च) दान-पुण्यकृता कीर्तिः पराक्रमकृतं यशः। एकदिग्गामिनी कीर्तिः, सर्वदिग्गामुकं यशः ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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