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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३८३ के योग्य शक्तियों को चलाने वाले साधन प्रकट हो जाते हैं। और मरण से पूर्व यानी जीवन-पर्यन्त उनका कार्य चालू रहता है। यद्यपि आत्मा का स्वरूप, नित्य, चैतन्यमय एवं जीवन्त (अविनाशी) है, किन्तु उसे आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास लेने, बोलने और सोचने के ये साधनरूप बलप्राण न मिलें तो व्यवहार में वह 'जिंदा है' यह नहीं जाना जा सकता। शरीर पर्याप्ति एवं श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति अधिक क्यों ? एक प्रश्न है-पहले शरीर नामकर्म और उच्छ्वासनामकर्म से शरीर और उच्छ्वास प्राप्त होने का कथन किया गया है, फिर यहाँ पुनः शरीर पर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति नामकर्म का उल्लेख क्यों किया गया ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि जीव द्वारा शरीर नामकर्म से गृहीत पुद्गल औदारिक आदि शरीररूप तथा उच्छ्वासनामकर्म द्वारा गृहीत पुद्गल श्वासोच्छ्वास रूप में परिणत होते हैं, किन्तु उन-उन रूपों में परिणत होना शक्ति-विशेष रूप शरीर तथा श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति के बिना शक्य नहीं है। इसलिए अलग से शरीर-पर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति मानी गई है। कितनी पर्याप्तियाँ किसमें और कौन-सी ? पूर्वोक्त ६ पर्याप्तियों में से एकेन्द्रिय को चार (आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास), द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी (अमनस्क) पंचेन्द्रिय जीव को उक्त चार पर्याप्तियों सहित पाँचवीं भाषापर्याप्ति मिलती है, तथा संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों को छहों पर्याप्तियाँ प्राप्त होती हैं। (४) प्रत्येक नामकर्म-जिस कर्म के उदय से एक शरीर का स्वामी एक ही जीव हो, अर्थात् प्रत्येक जीव को अपने-अपने कर्म के अनुसार पृथक्-पृथक् शरीर प्राप्त हो, उनका अलग-अलग शरीर हो, उसे प्रत्येक नामकर्म कहते हैं। (५) स्थिरनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव के दांत, हड्डियाँ, ग्रीवा आदि शरीर के अवयव स्थिर हों, अपने-अपने स्थान पर निश्चल हों, वह स्थिरनामकर्म है। (६) शुभनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में नाभि से ऊपर के अवयव शुभ (स्वस्थ और सुडौल) हों, उसे शुभनामकर्म कहते हैं। मस्तक आदि शरीर के अवयवों के स्पर्श होने या करने पर किसी को अप्रीति, ग्लानि या घृणा उसी तरह नहीं होती, जिस तरह पैर आदि को छूने से होती है। इसी कारण नाभि से ऊपर के अवयवों का शुभत्व समझना चाहिए। (७) सुभगनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव किसी प्रकार का उपकार किये बिना ही या किसी प्रकार का सम्बन्ध न होने पर भी सभी को प्रिय लगता है, उसे सुभगनामकर्म कहते हैं। (८) सुस्वरनामकर्म-जिस नामकर्म के उदय से जीव का १. (क) लद्धि करणेहिं । ते च पर्याप्ता द्विधा-लब्ध्या करणैश्च । -प्रथम कर्मग्रन्थ टीका ४८ - (ख) कर्मप्रकृति से, पृ. ११२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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