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________________ ३८६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) नामकर्म कहते हैं। (६) अशुभनामकर्म-जिस कर्म के उदय से नाभि से नीचे के अवयव अशुभ हों, उसे अशुभनामकर्म कहते हैं। पैर के स्पर्श होने पर अप्रसन्नता होती है, आदि-यही नाभि से नीचे के अवयवों के अशुभत्व का लक्षण है। (७) दुर्भगनामकर्म-जिस कर्म के उदय से उपकार करने पर भी, या परिचित होने पर भी जीव सबको अप्रिय लगता है। दूसरे जीव उससे शत्रुता, ईर्ष्या, द्वेषभाव, वैरभाव रखें, वह दुर्भगनामकर्म है। (८) दुःस्वर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर या वचन श्रोता को सुनने में अप्रिय या कर्कश लगे, उसे दुःस्वर नामकर्म कहते हैं। (९) अनादेय नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का युक्तिसंगत, लाभदायक या हितकारक वचन (कथन) भी अनादरणीय या अग्राह्य समझा जाता हो, उसे अनादेय नामकर्म कहते हैं। (१०) अयशःनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का. लोक में । अपयश और अपकीर्ति फैले, वह अयशः नामकर्म कहलाता है। ___ इस प्रकार नामकर्म की उत्तर-प्रकृतियों के स्वरूप, लक्षण और कार्य का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया गया है।' गोत्रकर्म की उत्तरप्रकृतियाँ : स्वरूप और कार्य तथा बन्धकारण जब तक जीव जन्म-मरणादिरूप संसार के चक्र से नहीं छूटता, तब तक वह किसी न किसी गति, योनि तथा परिवार-कुटुम्ब में जन्म लेता ही है। साथ ही किसी न किसी प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित, सम्मान्य-असम्मान्य, निन्द्य-अनिन्द्य कुल में जन्म प्राप्त कराने का कोई कारण है तो वह गोत्रकर्म है। जिस प्रकार कुम्हार छोटे-बड़े दूध-घी के योग्य तथा मद्य आदि रखने के योग्य बर्तन तैयार करता है, उसी प्रकार यह कर्म भी जीव को कभी आदरास्पद-उच्च और कभी नीच-अनादरास्पद बना देता है। कोशकारों ने तथाकथित कुल-वंशोत्पन्न व्यक्ति विशेषों की संतान-परम्परा आदि अनेक शब्दों के लिए गोत्र शब्द का प्रयोग किया है। परन्तु यहाँ गोत्र शब्द किसी ज्ञाति-जाति विशेष के अर्थ में प्रयुक्त न होकर यहाँ गोत्र शब्द कमविज्ञान का पारिभाषिक एवं टेकनिकल शब्द है। वह यहाँ विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वह अर्थ यह है-जिस कर्म के उदय से जीव जाति और कुल की अपेक्षा से उच्च-नीच, पूज्य-अपूज्य, आदरणीय-अनादरणीय, कुलीन-अकुलीन (उच्च खानदान-साधारण खानदान) कहलाता है, उसे गोत्रकर्म कहते हैं। मातृपक्ष को या माता के वंश को जाति और पितृपक्ष के वंश को कुल कहते हैं। जाति कुल की उच्चता-नीचता या कुल की साधारणता-असाधारणता आदि सब गोत्रकर्म के प्रभाव से प्राप्त होती है। किसी भी १. (क) तत्त्वार्थसूत्र ८/१२ (ख) समवायांग ४२ (ग) प्रज्ञापना २३/२९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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